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अधिकतर प्राप्त होते हैं।' देवगढ़ की पाठशालाओं में कभी-कभी आर्यिकाएँ और श्रावक-श्राविकाएँ भी प्रवेश पा लेती थीं। उपाध्याय के हाथ में स्थित ग्रन्थ उनकी शास्त्रनिष्ठा एवं पद-प्रतिष्ठा का द्योतक है।
देवगढ़ में साधुओं का निवास प्रचुर मात्रा में था, किन्तु उनका उल्लेखमात्र वहाँ के अभिलेखों से प्राप्त होता है अथवा उनकी मूर्तियाँ पाठशालाओं के दृश्यों में ही आलिखित हैं। यह आश्चर्य है कि यहाँ मुनियों का अंकन किसी अन्य रूप में प्रायः नहीं हुआ है। किन्तु एक स्थान पर एक मुनि कदाचित् आहार के पश्चात् अपने हाथ को उपधान बनाकर विश्राम कर रहा है, एक मुनि किसी शूकर को उपदेश दे रहा है और एक मुनि किसी श्रावक-युगल से आहार ग्रहण कर रहा है।
जहाँ तक आर्यिकाओं का प्रश्न है वे अपना समय या तो पाठशालाओं में व्यतीत करती थीं या पूजा-आराधना में। शास्त्रीय-विधानों का वे कठोरता से पालन करती थीं, तभी तो एक भी आर्यिका एकान्त विहार या किसी पुरुष की संगति करती हुई नहीं दिखायी गयी।
चर्या
देवगढ़ के कुछ दृश्यों से साधुओं और साध्वियों के धर्माचरण पर भी प्रकाश पड़ता है। साधु और साध्वियाँ अपने सभी मौलिक एवं अनिवार्य गुणों का पूर्णरूपेण पालन करते थे या नहीं, यह तो नहीं कहा जा सकता पर एक-दो गुणों का पालन करते हुए उन्हें हम कई बार देखते हैं-गुरुओं की विनय, शिष्यों को शिक्षा देना, श्रावकों को धर्मोपदेश देना और उनकी नवधा-भक्ति स्वीकार करना-उक्त गुणों में से मुख्य हैं।
1. विस्तृत जानकारी के लिए देखिए-प्रो. कृष्णदत्त वाजपेयी : प्राचीनकला में गुरु-शिष्यों का चित्रण
: त्रिपथगा (लखनऊ, 1956 ई.), पृ. 1-4 । 2. देखिए-चित्र सं. 77 से 82 तक। 3. मं. सं. 18 के महामण्डप के प्रवेशद्वार पर एक स्त्री मुनि का संवाहन करती हुई अंकित है। दे.
-चित्र सं. 91 और 116। 4. दे..-मं. सं. 18 के महामण्डप के प्रवेश-द्वार के दोनों पक्ष । 5. दे.-मं. सं. 12 के प्रदक्षिणापथ और गर्भगृह के प्रवेश-द्वार तथा चित्र सं. 22। 6. दे.--वही तथा चित्र सं. 22, 23 । 7. दे.-चित्र सं. 77-82 । 8. दे.-विभिन्न मानस्तम्भ तथा मं. सं. 19 के स्तम्भ । और भी दे.-चित्र सं. 92 । 9. इस सबके लिए दे.-चित्र सं. 77 से 85 तक। 10. साधु को दान करते समय नव प्रकार से भक्ति करनी चाहिए-(1) संग्रह-पडगाहना-साधु को
जाते हुए देखकर अपने द्वार पर प्रासुक जल का कलश लिये हुए निवेदन करना कि 'अत्र तिष्ठ
धार्मिक जीवन :: 221
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