________________
यही कारण है कि इन मन्दिरों के समीप ही कुछ समाधियाँ भी पायी गयी हैं। जिसे वर्तमान में मं. सं. 10 (दे. चित्र 14) कहते हैं, वह किसी विशिष्ट साधु की निषेधिका' (निसई) रही प्रतीत होती है। इसी प्रकार मं. सं. एक के पीछे (पश्चिम में) लगभग 100 फुट की दूरी पर एक स्तम्भ खड़ा है, जो निश्चित ही किसी निषेधिका या समाधि का अंग है। देवगढ़ में इनके अतिरिक्त और भी अनेक समाधिस्तम्भ पाये जाते हैं। मं. सं. पाँच-छह और इक्कीस के निकटवर्ती स्तम्भ समाधि-स्तम्भ ही हैं।
देवगढ़ में जो चरणपादुकाएँ मिली हैं, वे भी यही सूचित करती हैं कि यहाँ मुनि 'समाधिमरण' या 'सल्लेखना' धारण करते थे और यहीं उनका अन्तिम संस्कार भी किया जाता था। बहुत बड़ी संख्या में प्राप्त आचार्यों, उपाध्यायों और साधुओं की मूर्तियाँ (दे.-चित्र 75, 77-85) भी यही सिद्ध करती हैं कि देवगढ़ में मुनियों के अनेक संघ रहते थे। यहाँ प्राप्त एक मूर्तिलेख से ज्ञात होता है कि कुछ मूर्तियाँ यहाँ के चतुर्विध-संघ (मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका) के लिए भी निर्मित हुई थीं। अतः यह निर्विवाद है कि यहाँ साधुओं को निवास करने के लिए विभिन्न प्रकार की सुविधाएँ भी उपलब्ध करायी जाती थीं।
उद्बोधन
आचार्यों द्वारा उपाध्यायों तथा साधुओं को (दे.-चित्र 77-82) और कभी-कभी श्रावक-श्राविकाओं को भी उद्बोधन प्रदान किया जाता था (दे.-चित्र 77-82)। वे स्वयं उन सभी के द्वारा पूजित और वन्दित होते थे। उपाध्याय देवगढ़ में सर्वाधिक सक्रिय और कर्तव्यनिष्ठ रहे। उनकी पाठशालाओं के बीसों दृश्य यहाँ अंकित हुए हैं। एक उपाध्याय दो से लेकर आठ-दस तक साधुओं को शिक्षा प्रदान करता था।
अल्प आयु के शिष्यों को भी पाठशालाओं में अध्ययनरत अंकित किया गया है। इस प्रकार के पाठशाला-दृश्यों के अंकन की परम्परा भारत में प्राचीन काल से ही प्रचलित रही है। ऐसे दृश्य मथुरा, अजन्ता, खजुराहो, भुवनेश्वर आदि में
1. ध्यात्वा यथास्वं गुर्वादीन् न्यसेत् तत्पादुकायुगे। निषेधिकायां संन्याससमाधिमरणादि च ।।
.. -पं. आशाधर : प्रतिष्ठासारोद्धार (बम्बई, सं. 1974 वि.), अध्याय 1, श्लो. 108 । 2. उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे। धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥
-आचार्य समन्तभद्र : रत्नकरण्डश्रावकाचार (देहली, 1951 ई.), श्लो. 122 । 3. यह मूर्तिलेख मं. सं. 28 के शिलाफलक संख्या 3 (बायें से दायें) पर उत्कीर्ण है। 4. देखिए-चित्र सं. 77 से 82 तक तथा 85 ।
220 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org