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थीं।' अनेक युगलों को तीर्थंकर मूर्ति की वन्दना करते हुए देखा जा सकता है। द्रव्य का सदुपयोग
समय-समय पर दानशालाओं का निर्माण कराकर एक बार पण्डितों ने और दो बार कुछ श्रावकों ने अपने न्यायोपात्त द्रव्य का सदुपयोग किया था। कुछ श्राविकाएँ अपने हाथ में नारिकेल आदि पूजन-सामग्री लेकर मन्दिर जाती हुई दिखाई गयी हैं।
नैतिक पक्ष
धर्म के नैतिक पक्ष पर भी देवगढ़ में पर्याप्त बल दिया जाता था । व्यभिचारी और लम्पटी मनुष्यों को उनके कुकृत्यों की सजा मिलती थी । "
ग्रन्थों का पठन-पाठन
धार्मिक ग्रन्थों का पठन-पाठन देवगढ़ में उच्च स्तर पर प्रचलित था । वहाँ यशस्तिलक चम्पू' आदि जैसे प्रथम श्रेणी के साहित्यिक ग्रन्थों का प्रचार तो था ही,
1. दे. - मं. सं. 1 के मण्डप 2. दे. - चित्र सं. 52, 53, 64, 761 3. दे. - परि. एक,
अभि. क्र. 125 1
4. दे. - परि. एक, अभि. क्र. 126 और 129 1
5. दे. - पं. सं. एक ( चित्र 80 ) तथा चार (चित्र 79 ) में जड़ी मूर्तियाँ तथा सम्बन्धित वर्णन (अ. 5)।
6. दे. मं. सं. चार के प्रवेश-द्वार के ऊपर बायीं ओर तथा चित्र सं. 1151
जड़ी आचार्य मूर्ति तथा चित्र सं. 80 ।
7. आचार्य सोमदेव सूरि (958 ई.) द्वारा रचित यह विशाल चम्पू- ग्रन्थ प्रथम वार पं. काशीराम शर्मा द्वारा सम्पादित होकर श्रुतसागर की अपूर्ण संस्कृत टीका सहित निर्णयसागर प्रेस बम्बई से 1901 और 1903 ई. में दो खण्डों में प्रकाशित हुआ है। इसके प्रथम तीन आश्वास पं. सुन्दरलाल शास्त्री द्वारा ( 1960 ई. में) तथा कैलाशचन्द्र शास्त्री द्वारा ( 1964 ई. में) हिन्दी अनुवाद सहित सम्पादित होकर प्रकाशित हुए हैं। इस पर प्रो. कृष्णकान्त हन्दिकी ने 'यशस्तिलक एण्ड इण्डियन कल्चर' (शोलापुर, 1949 ई.) तथा डॉ. गोकुलचन्द्र जैन ने 'यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन' ( अमृतसर, 1967 ई.), नामक विशिष्ट शोधपूर्ण अध्ययन भी प्रस्तुत किये हैं। आचार्य सोमदेव के परिचय आदि के लिए दे. - (अ) पं. ना. रा. प्रेमी जै.सा. इ., पृ. 177-951 (ब) पं. कैलाशचन्द्र शा. उपासकाध्ययन, (काशी, 1964), ( अमृतसर, 1967 ई. ) पृ. 27-41। (स) डॉ. गोकुलचन्द्र जैन : यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन, ( अमृतसर, 1967 ई.), पृ. 27-41 1 (द) सं. सा. इ., पृ. 263-641 (इ) डॉ. ही.ला. जैन : भा.सं. जै. यो., पृ. 113, 171 ।
224 :: देवगढ़ की जैन कला एक सांस्कृतिक अध्ययन
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