SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अभिनन्दनीय विशेषता का परिचय हमें उसके द्वारा कला-प्रदर्शन के लिए चुने गये स्थान को देखकर मिलता है। धर्मोपदेशकों और कला-प्रेमियों ने अवश्य ही उसकी अभिरुचि के परिष्कार में पर्याप्त सहयोग दिया था । एक विशाल समतल भूभाग के मध्य मध्यमाकार पर्वतमाला पर अपनी परिष्कृत कला-शैली का उद्घाटन करके कलाकार फूला न समाया होगा । कभी लरजती - गरजती, कभी उछलती-बहकती और कभी प्रोषितपतिका की भाँति क्षीण-शरीरा वेत्रवती कलाकार के लिए सौ-सौ प्रोत्साहन देती होगी। ऐसा अनुपम - क्षेत्र, ऐसा सिद्धहस्त कलाकार और कला प्रदर्शन का लक्ष्य त्रिलोकीनाथ तीर्थंकर, सभी कुछ अब अद्भुत और अपूर्व दृश्य की सृष्टि करनेवाले। तो आइए, हम इस सृष्टि की प्राकृतिक सुषमा पर एक उड़ती नजर ही डालें । तीर्थंकर की माता द्वारा देखे गये सोलह मंगल - स्वप्नों के अंकन में कलाकार को प्रकृति के विभिन्न रूप प्रस्तुत करने का अच्छा अवसर मिला है। ग्यारहवें स्वप्न में उत्ताल तरंगों से युक्त समुद्र और दसवें में कमलाच्छन्न पद्माकर का अंकन प्रभावोत्पादक है । सरोवर में अठखेलियाँ करता हुआ मत्स्य युगल, लक्ष्मी का अभिषेक करता हुआ गज-युगल और बत्तीस शुण्डा दण्डों को आकाश में लहराता हुआ ऐरावत देखते ही बनता है । उदीयमान सूर्य, पूर्णाकार चन्द्र, उड़ान भरता हुआ दिव्य विमान और नयनाभिराम नागेन्द्र भवन अलौकिक छटा बिखेर रहे हैं । रत्नजटित सिंहासन, प्रकाशमान रत्नराशि, जाज्वल्यमान निर्धूमाग्नि और मालाओं से शोभायमान वृक्ष सुन्दर बन पड़े हैं । और इन सबके प्रारम्भ में विशालाकार गज, धवल - वर्ण वृषभ और वनराज सिंह अपने सम्पूर्ण बल - वैभव का प्रदर्शन कर रहे हैं। I अशोक-वृक्ष,' आम्रवृक्ष' और कल्पवृक्ष के अंकन में कलाकार ने प्रशंसनीय सफलता प्राप्त की है। अम्बिका के कर-कमल से लम्बमान आम्र - गुच्छक, और बाहुबली को आलिंगन - पाश में लिये लताएँ," कला की उत्कृष्ट कोटि को प्रदर्शित कर रही हैं । पत्रावलियों, कमलाकृतियों और कमलदलों के अलंकरण सूक्ष्मता से अंकित हुए हैं। 1. दे. - चित्र सं. 19-201 2. दे. - चित्र सं 84 । 3. दे. - अम्विका - मूर्तियाँ, चित्र 103-105, 109 आदि । 4. मं. सं. 12 आदि के प्रवेश द्वारों की देहरी पर मध्य में उभारी गयी वृक्षाकृतियों को कल्पवृक्ष (स्थानीय स्तर पर ) कहा जाता t 5. दे. - चित्र सं. 63, 103-105 तथा 109 आदि । 6. दे. - चित्र सं. 861 7. दे. - चित्र सं. 16, 35, 48, 90, 114-15 आदि । 8. दे. - चित्र सं. 30, 76 आदि । 9. दे. - चित्र सं. 1।। Jain Education International For Private & Personal Use Only मूर्तिकला : 209 www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy