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हुई हैं। कुछ मूर्तियाँ अर्धपद्मासन' में भी प्राप्त होती हैं । देव देवियों के अंकन में अर्ध-पद्मासन, उत्थित पद्मासन, ललितासन, राजलीलासन, अर्ध- पर्यंकासन' आदि का उपयोग हुआ है।
(ब) मुद्राएँ
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देवगढ़ की जैन कला में मुद्राओं के अन्तर्गत वितर्क," धर्मोपदेश,' नासाग्र, त्रिभंग, 10 कटिहस्त, " आलिंगन, 12 सम्भोग, 13 वरद, 14 अभय आदि मुद्राएँ मुख्य रूप से अंकित प्राप्त होती हैं ।
अंजलि,
14. प्रकृति चित्रण
विन्ध्याचल की अर्ध-वृत्ताकृति पर्वतमाला की हरी-भरी गोद में गगनचुम्बी मन्दिरों को सँजोये, कल-कल निनादिनी वेत्रवती के आलिंगन से आह्लादित देवगढ़ की वसुन्धरा पर्वत - नन्दिनी गौरी का स्मरण दिलाती है, जो पर्वतराज हिमालय की गोद में गगनचुम्बी कैलास के समीप गंगा से प्रक्षालित-चरणा होती हुई खेल रही हो । देवगढ़ का कलाकार देव - शास्त्र और मूर्ति - विज्ञान के रूढ़ नियमों से सुपरिचित अवश्य था, परन्तु प्रकृति की रमणीय रूपराशि का रसिक भी वह अवश्य था । उसकी इस
1. ऐसी कुछ मूर्तियाँ जैन चहारदीवारी में देखी जा सकती हैं।
2. दे. - चित्र सं. 83, 112, 113 आदि ।
3. दे. - चित्र सं.
99, 100, 111 आदि । 108-110 आदि 1
4. दे. - चित्र सं.
5. दे. - चित्र सं.
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6. दे. - चित्र सं. 84 और 85 ।
7. दे. - चित्र सं. 83 1
8. दे. - चित्र सं. 51-60, 67-69, 71-72, 74 आदि ।
9. दे. - चित्र सं. 77 में पीछे खड़ा साधु, चित्र 78 में पीछे खड़े साधु तथा चित्र 122 में विनीत
श्रावक ।
10. दे. - चित्र सं. 59 में कमलधारी देव, तथा चित्र 52, 61, 64, 74 में चंवरधारी एवं विभिन्न मन्दिरों के द्वारों पर गंगा-यमुना के अंकन और भी दे. - चित्र सं. 103 104 105 आदि । 11. दे. - चित्र सं. 101, 112, 117 आदि ।
119, 121 आदि तथा चित्र 90 का निचला कोष्ठक ।
12. दे. - चित्र सं. 13. दे. - चित्र सं. 14. दे. - चित्र सं. 19, 20, 76, 95 आदि ।
120 में ऊपरी प्रथम कोष्ठक ।
15. दे. - चित्र सं. 99, 100 एवं चतुर्थ अ. में विद्या- देवियों का वर्णन ।
208 :: देवगढ़ की जैन कला एक सांस्कृतिक अध्ययन
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