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तीर्थंकरों के चिह्न, देव - देवियों के वाहन, भित्तियों, द्वारों, गवाक्षों, स्तम्भों एवं सिंहासनों आदि के अलंकरण के रूप में उनके अनेक अंकन दृष्टिगत होते हैं ।
(अ) पशु
सिंह : सिंहासनों पर सिंहों के अंकन की पद्धति अत्यन्त व्यापक और प्राचीन है। सिंह प्रबल शक्ति और प्रभुत्व का प्रतीक माना जाता रहा है। उस पर आसीन होना और भी अधिक बलवत्ता एवं प्रभुत्व का परिचायक है। इसीलिए महान् विभूतियों के आसनों पर सिंह का अंकन एक आवश्यक तथ्य बन गया । यह तथ्य इतना अधिक प्रचलित हुआ कि उसके कारण 'सिंहासन' शब्द आसन का पर्यायवाची बन गया; जिस आसन पर सिंह नहीं होता, उसे भी सिंहासन कहा जाने लगा । देवगढ़ की जैन कला में सिंहों का अंकन हाथियों से भी अधिक भव्यता से किया गया है। कभी वे दोनों द्वन्द्व युद्ध कर रहे होते हैं तो कभी परस्पर स्नेह क्रीड़ा में मग्न दिखाये जाते हैं । 1 सोलह-मंगल-स्वप्नों में तो सिंह का अंकन हुआ ही है। महावीर स्वामी के चिह्न के रूप में भी यह आलिखित है । सिंहों का अंकन वृषभ या हरिण के साथ भी हुआ है। इसका उद्देश्य तीर्थंकर के अहिंसामय धर्म की प्रभावना रही होगी। इस दृष्टि से वह दृश्य अत्यधिक प्रभावोत्पादक बन पड़ा है जिसमें एक सिंही, एक गाय और उन दोनों के बच्चे एक साथ उत्कीर्ण किये हैं ।" अम्बिका यक्षी के वाहन के रूप में उसे विभिन्न रूपों में सौ से भी अधिक स्थानों ( मूर्तिफलकों) पर देखा जा सकता है । "
हाथी : हाथियों के मूर्त्यांकन भी देवगढ़ की जैन कला में बहुत मिलते हैं । सिंहों के साथ और द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ के लांछन के रूप में 10 उन्हें देखा
1. देवगढ़ के सिंहासनों के लिए दे. - चित्र सं. 52, 53, 57-61, 66-67, 71, 74, 98 आदि । 2. मं. सं. 4, 5, 11, 12, 23 आदि के द्वारों पर ।
3. दे. - चित्र सं. 18, 35 आदि ।
4. दे. मं. सं. 4, 5, 11 ( दोनों खण्डों के द्वार), 23 आदि के द्वार । और भी दे. - चित्र सं. 6, 35 आदि ।
5. दे. - चित्र सं. 19 ।
6. मं. सं. 10 के मध्यवर्ती स्तम्भों पर तथा मं. सं. 20 एवं दि. जैन चैत्यालय आदि में स्थित मूर्तियों
पर ।
7. यह मूर्तिफलक मं. सं. 11 की पहली मंज़िल के गर्भगृह में स्थित है ।
8. दे. - चित्र सं. 63, 103, 105 और 109 आदि ।
9. दे. - चित्र सं. 6-7, 18, 35 आदि ।
10. इस तीर्थंकर की अनेक मूर्तियाँ विभिन्न मन्दिरों एवं जैन चहारदीवारी में तो प्राप्त होती ही हैं, मं. सं. 12 के गर्भगृह के प्रवेश द्वार के सिरदल (मध्य में) पर उत्कीर्ण भी देखी जा सकती हैं।
204 :: देवगढ़ की जैन कला एक सांस्कृतिक अध्ययन
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