________________
प्रायः प्रणालिकाओं के मुख पर बनाये जाते हैं, जिनमें से जल की धारा बहा करती है। देवगढ़ की जैन कला में इस सज्जा-तत्त्व का उपयोग प्रचुरता से हुआ है। इसकी आकृतियाँ अनेक द्वार-देहरियों के मध्य में तथा कुछ स्तम्भों पर भी मिलती हैं। मं. सं. आठ के मण्डप में एक अत्यन्त कलापूर्ण मकरमुख रखा हुआ है।
कीर्तिमुख : कीर्तिमुख भी एक सज्जातत्त्व है। इसका अंकन स्तम्भों, तोरणों और कोष्ठकों आदि पर होता है। कीर्तिमुखों से मालाएँ, लड़ियाँ तथा श्रृंखलाएँ आदि झूलती हुई दिखायी जाती हैं। देवगढ़ में ये पर्याप्त मात्रा में दिखाई पड़ते हैं। इनके मुखों से लड़ियाँ, शृंखलाएँ आदि झूलती हुई अंकित की गयी हैं।
कीचक : कीचक का अंकन भी सज्जागत तत्त्वों के अन्तर्गत होता है। इसका आलेखन ऐसे मनुष्य की आकृति में होता है, जो स्तम्भ-शीर्षों पर बैठकर अपनी पीठ पर समूची छत का भार वहन कर रहा हो। देवगढ़ की जैन कला में इसका अंकन इसी रूप में अत्यन्त सुन्दरता से किया गया है।
गंगा-यमुना तथा नाग-नागी : गंगा-यमुना और नाग-नागी' के अंकन भी देवगढ़ में प्रचुरता और मोहक मुद्राओं में हुए हैं। ये अधिकतर मन्दिरों के द्वार-पक्षों पर अंकित हैं। इनके सम्बन्ध में चतुर्थ अध्याय में प्रतीकात्मक देव-देवियों के प्रसंग में विवेचन किया जा चुका है।
तीर्थंकरों के लांछन और देव-देवियों के वाहन
देवगढ़ की जैन कला में तीर्थंकरों के लांछनों तथा देव-देवियों के वाहनों के रूप में स्वस्तिक, चन्द्र, शंख, वृक्ष आदि प्राकृतिक तत्त्वों, चक्रवाक, मयूर, हंस, गरुड़ आदि पक्षियों एवं वृषभ, गज, अश्व, बन्दर, हिरण, सिंह आदि पशुओं के विविध और सुन्दर प्रतीकांकन भी दर्शनीय हैं।
12. पशु-पक्षी तथा अन्य जीव-जन्तु पशु-पक्षी तथा अन्य जीव-जन्तु देवगढ़ की जैन कला में सेरोन और खजुराहो की भाँति विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए उत्कीर्ण नहीं किये गये हैं, तथापि यहाँ
1. दे.-चित्र सं. 43 से 45 तक तथा विभिन्न मानस्तम्भ आदि। 2. दे.-चित्र सं. 16। चित्र सं. 43 में मध्यवर्ती स्तम्भ (सं. तीन) पर भी कीचक के सुन्दर आलेखन
देखे जा सकते हैं। 3. दे.-मं. सं. 5 (2), 9, 11 (2), 12 (2), 15 (2), 16, 18 (2), 19, 20, 23, 24, 28, 31 तथा
लघु मन्दिर सं. 4। और भी दे.-चित्र सं. 6-7, 18, 21, 33, 35 आदि। 4. नाग-नागियों के अंकन प्रायः गंगा-यमुना के साथ हुए हैं।
मूर्तिकला :: 203
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org