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________________ जा सकता है । परन्तु इस विशालकाय प्राणी को तीर्थंकर के अष्ट-प्रातिहार्यों के साथ मालाएँ धारण किये और कलशों से जलधारा छोड़ते हुए दिखाकर कलाकार ने एक नवीन उद्भावना प्रस्तुत की है। वस्तुतः अष्ट प्रातिहार्यों के अन्तर्गत या उनके साथ हाथियों के अंकन का कोई शास्त्रीय विधान दृष्टिगत नहीं होता, तथापि उनका यह अंकन स्वाभाविक और भव्य ही प्रतीत होता है। तीर्थंकर मूर्तियों के साथ हाथियों का यह अंकन देखकर विचार करना पड़ता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि जैन कलामर्मज्ञ ने 'गजलक्ष्मी को अंकित कराने का लोभ इस रूप में अभिव्यक्त किया हो । सोलह-मंगल-स्वप्नों में इसका प्रभावशाली अंकन हुआ है। तथा तीर्थंकर की माता के पर्यंकासन में भी इसका आलेखन सुन्दरता और भव्यता के साथ हुआ है । " वृषभ : वृषभ का अंकन देवगढ़ की जैन कला में प्रथम तीर्थंकर के लांछन के रूप में तथा सोलह-मंगल-स्वप्नों के अन्तर्गत मिलता है । अश्व : अश्व का आलेखन यहाँ की कला में तीर्थंकर सम्भवनाथ के लांछन के रूप में हुआ है। # शार्दूल : अन्य स्थानों की भाँति यहाँ भी शार्दूलों का अंकन उनके वास्तविक रूप में कम और पौराणिक रूपों में अधिक किया गया है। जैसा कि कहा जा चुका है, उसके विभिन्न रूपों के अंकन सज्जागत तत्त्वों के अन्तर्गत हुए हैं । उसके शरीर पर शार्दूल, सिंह, हाथी, अश्व और गर्दभ आदि के मस्तक दिखाये गये हैं। हरिण : हरिण का अंकन यहाँ सोलहवें तीर्थंकर शान्तिनाथ के लांछन के रूप में तथा सिंह के साथ मिलता है । " बन्दर : देवगढ़ की जैन कला में बन्दर ( वानर) का आलेखन चौथे तीर्थंकर अभिनन्दननाथ के लांछन के रूप में किया गया है । " 1. दे. - चित्र सं. 51, 52, 74 आदि । 2. दे. - चित्र सं. 71, 72 आदि । एवं मं. सं. चार आदि में इस प्रकार के अंकन युक्त अनेक मूर्तिफलक देखे जा सकते हैं। 3. साँची और भरहुत में गजलक्ष्मी की अनेक मूर्तियाँ मिली हैं, जिनसे स्पष्ट है कि ई.पू. द्वितीय- प्रथम शती से इस प्रकार के अंकन होने लगे थे । 4. दे. - चित्र सं. 191 5. दे. चित्र सं. 93 | 6. दे. - चित्र सं. 56, 60, 67, 74, 75 आदि । 7. दे. - चित्र सं. 191 8. मं. सं. दस में मध्यवर्ती स्तम्भ पर । 9. दे. - चित्र सं. 51, 52, 57 आदि तथा विभिन्न मन्दिरों के द्वार । 10. मं. सं. दस के मध्य, स्तम्भ के अतिरिक्त मं. सं. 31 के प्रवेश-द्वार के सिरदल पर तो इस लांछन सहित तीर्थकर - मूर्ति उत्कीर्ण हैं ही, विभिन्न मन्दिरों में भी ऐसी मूर्तियाँ विद्यमान हैं। 11. दे. - चित्र सं. 581 Jain Education International For Private & Personal Use Only मूर्तिकला :: 205 www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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