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________________ से उनका फल बताया गया है। श्वेताम्बर जैन मान्यतानुसार भगवान् महावीर जब देवानन्दा के गर्भ में अवतीर्ण हुए तब उसे चौदह स्वप्न दिखे थे और जब देवों ने उन्हें क्षत्रियाणी त्रिशला के गर्भ में स्थानान्तरित कर दिया तो उसने भी वे चौदह स्वप्न देखे। प्रातः त्रिशला ने इस स्वप्नों की चर्चा अपने पति सिद्धार्थ से की तो उन्होंने निमित्त-पाठकों को बुलाकर उक्त स्वप्नों का फल समझाने के हेतु आदेश दिया था। दिगम्बर जैन मान्यता के अनुसार त्रिशला द्वारा देखे गये स्वप्नों की संख्या सोलह है तथा उनका अर्थ सिद्धार्थ स्वयं समझाते हैं, निमित्त-पाठकों को नहीं बुलाते। मन्दिरों के प्रवेश-द्वार पर मंगल-स्वप्नों को उत्कीर्ण करने की परम्परा आज भी विद्यमान है। काष्ठफलकों पर भी इन्हें उत्कीर्ण कराया जाता था। पाण्डुलिपियों में और उनके काष्ठ-आवरणों पर तथा दीवारों आदि पर इन्हें चित्रित करने की परम्परा, विशेष रूप से श्वेताम्बरों में बहुत प्रचलित रही। चरण-पादुकाएँ : किसी विशेष महापुरुष, तीर्थंकर या साधु के स्मारक रूप में उसके साधना, निर्वाण या समाधिस्थल आदि पर चरण-चिह्रों की स्थापना की जाती है। 1. 'नागेन तुङ्गचरितो वृषतो वृषात्मा सिंहेन विक्रमधनो रमयाधिकश्रीः। स्रग्भ्यां धृतश्च शिरसा शशिना क्लमच्छित् सूर्येण दीप्ति महितो झषतः सुरूपः ॥ कल्याणभाक्कलशतः सरसः सरस्ती गम्भीरधीरुदधिनासनतस्तृदीशः। देवाहिवासमणिराश्यनलैः प्रतीत-देवोरगागम-गुणोद्गम-कर्मदाहः ॥' -मुनिसुव्रतकाव्य, स. तीन, प. 28-29 और भी दे.- (अ) महापुराण (आदिपुराण), पर्व 12, प. 155 और आगे। (ब) चन्द्रप्रभचरित, स. 16, प. 63 । (स) पंच मंगल पाठ : बृ. जिनवाणी संग्रह, पृ. 52। 2. दे. कल्पसूत्र : याकोबी सम्पा., सूत्र तीन, पृ. 2191 3. दे.-वही, सूत्र 31-46, पृ. 229-381 4. दे.-(अ) महापुराण (आदिपुराण), पर्व 12, श्लोक 101-19। (ब) हरिवंशपुराण, स. आठ, श्लो. 58-741 5. दिगम्बर जैन बुधूव्या का मन्दिर, बड़ा बाजार, सागर की दूसरी मंजिल के गर्भगृह के प्रवेश-द्वार पर । इस द्वार के प्रतीकांकनों के वर्णन आदि के लिए दे.-पं. गोपीलाल अमर : एक प्रतीकांकित द्वार : अनेकान्त, व. 22, कि. दो., पृ. 60-611 6. ऐसा एक फलक श्री पाण्ड्या गृह, पाटन (उत्तर गुजरात) में सुरक्षित है। 7. दे.-(अ) जैन चित्र कल्पद्रुम, आकृति 73 । (ब) आनन्द के. कुमारस्वामी : कैटलाग ऑफ़ दी इण्डियन कलेक्शंस इन दी म्युजियम ऑफ़ फ़ाइन आर्ट्स, जि. 4 (बोस्टन, 1924), चित्र 13-14 । (स) चित्र कल्पद्रुम, चित्र 17 और 22। 8. कलेक्शंस ऑफ़ प्रवर्तक श्री कान्तिविजय : जे. आइ. एस.ओ.ए. : जिल्द पाँच, पृ. 2-12 एवं सम्बन्धित चित्रफलक। 9. णिरयावलियाओ (अहमदावाद, 1934), दो. एक, पृ. 51 पर उल्लिखित । मूर्तिकला :: 201 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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