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तत्कालीन और उत्तरवर्ती स्थापत्य में इन प्रतीकों का व्यापक प्रचार था। दूधई, खजुराहो, आबू आदि में भी इन्हें देखा जा सकता है।
मंगल-स्वप्नों की मान्यता भारत में बहुत प्राचीन है। छान्दोग्योपनिषद् में उल्लेख है कि 'वह यदि स्त्री को देखे तो समझ ले कि अभीष्ट कार्य सफल हो जाएगा, जैसा कि इस श्लोक में लिखा है : 'जब अभीष्ट कार्यों को हाथ में ले चुकने पर स्वप्न में स्त्री दिखे तो उस स्वप्न के निमित्त से समझ ले कि उन कार्यों में सफलता मिलेगी ही।
जैन परम्परा के अनुसार भगवान् जिनेन्द्र जब माता के गर्भ में आने लगते हैं तब माता स्वप्नों को देखती है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार इन मंगल-स्वप्नों की संख्या सोलह है, जबकि श्वेताम्बर परम्परा में केवल चौदह। अतः ये स्वप्न भगवान् जिनेन्द्र के जन्म का अनुमान कराने में सूचना-स्वरूप हैं।
भगवान् महावीर से पहले स्वप्न-फल समझानेवाले विद्वानों को 'निमित्त-पाठक' कहा जाता था। आजीवक सम्प्रदाय में निमित्त-शास्त्र बहुत प्रचलित था। ईसा-पूर्व प्रथम शती में कालकाचार्य ने इन्हीं से निमित्त-शास्त्र की पूर्ण विद्या प्राप्त की थी। 'अंगविज्जा' (लगभग 600 ई.) नामक महत्त्वपूर्ण जैन ग्रन्थ में निमित्त-विद्या का विस्तृत वर्णन मिलता है।
मंगल-स्वप्नों का जैन परम्परा में बहुत महत्त्व है और विभिन्न ग्रन्थों में विस्तार
1. दे.-पश्चिमाभिमुख शान्तिनाथ मन्दिर के मण्डप का तोरण (भीतर की ओर)। 2. दे.-घण्टई, शान्तिनाथ और आदिनाथ मन्दिर के प्रवेश-द्वार। 3. दे.-खरतर वसहि का प्रवेश-द्वार। 4. ‘स यदि स्त्रियं पश्येत् समृद्ध कर्मेति विद्यात्। तदेष श्लोकः
यदा कर्मसु काम्येषु स्त्रियं स्वप्नेषु पश्यति।
समृद्धिं तत्र जानीयात्तस्मिन् स्वप्ननिदर्शन।।' –छान्दोग्योपनिषद्, 2.7-8 । 5. 'गजो वृषो हरिः साभिषेकश्रीः स्रक्शशी रविः ।
महाध्वजः पूर्णकुम्भः पद्मसरः सरित्पतिः।। विमानं रत्नपुंजश्च निधूमाग्निरिति क्रमात् ।' -बी.सी. भट्टाचार्य : जैन आइकानोग्राफी, पृ. 51 पर त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित से उद्धृत। और भी दे.-भद्रबाहु : कल्पसूत्र : याकोबी सम्पा., सूत्र तीन, पृ. 219। तथा सूत्र 31-36, पृ. 229 से 238 तक। 6. (अ) वीरनन्दी : चन्द्रप्रभचरित. (बम्बई, 1892 वि.), सर्ग 16, प. 571
(ब) अर्हद्दास । मुनिसुव्रत काव्य, स. 3, प. 30। 7. डॉ. उ. प्रे. शाद्द : स्टडीज़ इन जैन आर्ट, पृ. 105, पादटिप्पणी सं. एक। 8. मुनि पुण्यविजयजी द्वारा सम्पादित तथा प्राकृत जैन टेक्स्ट सोसायटी द्वारा 1957 में
प्रकाशित।
200 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन
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