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________________ दो रेखाएँ पुरुष और प्रकृति, जीव और पुद्गल, ' चैतन्य और जड़, ब्रह्म एवं माया, 2 अमृत और मर्त्य, सत्य और असत्य, अमूर्त और मूर्त आदि विश्व के दो सनातन तत्त्वों का निर्देश करती हैं। इन रेखाओं के छोरों पर की चार पंक्तियाँ चार गतियों का स्मरण कराती हैं। 1 देवगढ़ की जैन कला में स्वस्तिक का अंकन तीर्थंकर के लांछन के रूप में हुआ है। जबकि इसका प्राचीनतम रूप मथुरा एवं कौशाम्बी आदि से प्राप्त आयागपट्टों पर उपलब्ध होता है । यहाँ यह विचारणीय है कि तिलोयपण्णत्ती' के अनुसार यह दशवें तीर्थंकर शीतलनाथ का लांछन होना चाहिए, जबकि प्रतिष्ठापाठ, 7 प्रतिष्ठासारोद्धार, वास्तुसार प्रकरण' और अपराजित पृच्छा" के अनुसार सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ का है । 8 सोलह मंगल - स्वप्न : तीर्थंकर तब माता के गर्भ में आते हैं तब वह सोलह मंगल" स्वप्न देखती हैं। 12 इन्हें भी मन्दिरों के द्वारों, तोरणों आदि पर अंकित किया गया। देवगढ़ की जैन कला में इनका अंकन एक स्थान 13 पर हुआ है, यद्यपि 1. जैन दर्शन के अनुसार । 2. वेदान्त दर्शन के अनुसार । 3. दिगम्बरदास जैन एडवोकेट : स्वस्तिक के चमत्कार : जैन मित्र (फाल्गुन सुदी 15, वी. सं. 2494), पृ. 189-901 4. दे. - बृह. जै. शब्दा., पृ. 658 1 5. देवगढ़ में कुछ तीर्थंकर मूर्तियों पर स्वस्तिक का उलटा अंकन भी मिलता है । 6. यतिवृषभ सूरि : अधिकार चार गाथा 604-5 7. जयसेन श्लोक सं. 346-47। 8. पं. आशाधर : अ. एक, श्लोक 78-791 9. ठक्कुर फेरु, प्रक. तृ., परि. गद्यांश 7, पृ. 151 । 10. भुवनदेवाचार्य: सूत्र 221, पृ. 8 1 11. सोलह - मंगल - स्वप्न हैं - ( 1 ) गर्जना करनेवाला सफेद हाथी, (2) सफेद बैल, (3) सिंह, (4) दोनों जुओं से कलशाभिषेक करते हुए हाथी, (5) लटकती हुई दो पुष्पमालाएँ, (6) चाँदनी सहित पूर्ण चन्द्रमा, (7) उदीयमान सूर्य, ( 8 ) सरोवर में क्रीडामग्न मत्स्ययुगल, ( 9 ) कमलाच्छादित सुवर्ण कलश, ( 10 ) पद्मसरोवर ( 11 ) उन्मत्तलहरयुक्त सागर, ( 12 ) रत्नजटित सिंहासन, ( 13 ) रत्न- मणि-जटित देव विमान, ( 14 ) नागेन्द्र भवन, (15) प्रकाशमान रत्न शशि और ( 16 ) धूमरहित प्रखर अग्नि ज्वाला । 12. (अ) आ. जिनसेन : महापुराण (आदिपुराण), पर्व 12, श्लो. 101 से 119 तक । ( ब ) आ. जिनसेन : हरिवंशपुराण, सर्ग 8 श्लो. 58 से 74 तक । : ( स ) अर्हद्दास मुनिसुव्रत काव्य, पं. के., भुजबली शास्त्री तथा पं. हरनाथ द्विवेदी द्वारा सम्पादित अनूदित (आरा, 1929), सर्ग तीन, पृ. 23-25। 13. मं. सं. वारह के गर्भगृह के प्रवेश द्वार के सिरदल पर । दे. - चित्र सं. 19-20 और 18। Jain Education International For Private & Personal Use Only मूर्तिकला :: 199 www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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