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________________ जैन कला में तीर्थंकर मूर्तियों के सिंहासन पर मध्य में हुआ है। उसके दोनों ओर एक-एक सिंह (या कभी-कभी एक ओर सिंह तथा एक ओर हिरण) भी दिखाये गये धर्मचक्र की मान्यता भारतीय कला में बहुत प्राचीन है। जब महात्मा बुद्ध की मूर्तियाँ नहीं बनती थीं तब उनको प्रत्युपस्थापित (रिप्रिजेण्ट) करनेवाले प्रतीकों में धर्मचक्र सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। सारनाथ, बोधगया आदि से प्राप्त बोधिसत्त्व और बुद्ध की मूर्तियों में धर्मचक्र के दोनों ओर हिरण भी अंकित हुए हैं। वैदिक धर्म में इसे विष्णु की तर्जनी (अँगुली) पर घूमता हुआ दिखाया जाता है। चक्रवर्ती के सुदर्शन-चक्र की कल्पना कदाचित् धर्मचक्र की ही देन है। चक्र : इसी प्रकार वृषभनाथ की यक्षी चक्रेश्वरी के अनेक हाथों में चक्र दिखाया जाता है। श्रीवत्स : श्रीवत्स भी देवगढ़ की जैन कला में तीर्थंकर मूर्तियों के वक्षस्थल पर एक उभरी हुई चतुष्कोण आकृति के रूप में (एक-एक कोण ऊपर-नीचे होता है और उनमें से प्रत्येक लगभग 60° का कोण बनाता है तथा कभी-कभी अगल-बगल के कोण, कोण न रहकर वृत्ताकार हो जाते हैं) प्राप्त होता है। यह प्रतीक मथुरा की कुषाणकालीन कला में आयागपट्टों पर उत्कीर्ण किया गया है। परवर्तीकाल में इसे मूर्तियों के वक्षस्थल पर स्थान मिला। इसकी मान्यता भी वैदिक और बौद्ध धर्मों में समान रूप से रही है। इसे विष्णु का चिह्न' मानकर उनका एक. नाम श्रीवत्सलांछन भी रखा गया। तथा उनकी मूर्ति के वक्षस्थल पर इसे प्रायः अंकित किया जाता है। बौद्ध कला में अलंकरण के रूप में इसका प्रयोग मिलता है। स्वस्तिक : सम्पूर्ण भारतीय दर्शन में स्वस्तिक की व्यापक महत्ता स्वीकार की गयी है। यह पुरुष-प्रकृति-रूप दो तत्त्वों से बने तथा चतुर्गति रूप संसार में घूमनेवाले जीवन सम्बन्धी महासत्य का प्रतीक है। इसके मध्य में खड़ी और आड़ी 1. दे.-चित्र सं. 52, 53, 57, 61, 66, 67, 71, 74 आदि। 2. और भी दे.-भिक्षु धर्मरक्षित : सारनाथ का इतिहास (वाराणसी, 1961), पृ. 14 तथा 110 और उनसे सम्बद्ध चित्रफलक। 3. दे.-चित्र सं. 99, 100, 111 आदि। 4. दे.-चित्र सं. 55, 56, 58, 59, 61, 62, 71, 72, 74 आदि। 5. 'श्रीवत्सो लाञ्छनं स्मृतम्' ।-अमरकोष, 1-1-29 । 6. 'विश्वंभरः कैटभजिद्विधुः श्रीवत्सलाञ्छनः।-अमरकोष, 1-1-22। 7. सांख्य दर्शन के अनुसार। 8. चार गतियाँ हैं-नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव। 198 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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