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________________ मूर्तियों पर हुआ है, जिनपर नहीं हुआ है, उनका निर्माण उस समय हुआ होगा जब (ई. तीसरी शती) अष्ट प्रातिहार्यों का प्रचलन नहीं हुआ था । कुछ मूर्तियों पर ये अपने समग्र रूप में नहीं मिलते, उदाहरण के लिए अशोक वृक्ष और पुष्प वृष्टि के अंकन बहुत कम मूर्तियों पर हुए हैं । दिव्यध्वनि को अंकित करने का कलाकार के पास कदाचित् कोई माध्यम न था । यहाँ की मूर्तियों में अष्टप्रातिहार्य के रूप में प्रायः सिंहासन, छत्रत्रय, प्रभामण्डप, चँवरधारी यक्ष एवं दुन्दुभिधारी उद्घोषक आदि ही प्राप्त होते हैं । नव-निधि : छह-खण्ड पृथ्वी के स्वामी चक्रवर्ती की वैभवसूचिका नवनिधियाँ 2 मानी गयी हैं । देवगढ़ की जैन कला में नवनिधियों का अंकन चक्रवर्ती भरत की मूर्तियों के साथ हुआ है। अन्तर केवल इतना है कि उन्हें तदाकार रूप में न दिखाया जाकर एक के ऊपर एक रखे गये नौ घटों के रूप में अंकित किया गया है। धर्मचक्र : धर्मचक्र' तीर्थंकर को केवलज्ञान प्राप्त हो जाने पर देवों द्वारा किये जानेवाले चौदह अतिशय गुणों में तेरहवाँ है। तीर्थंकर के विहार के समय सूर्य से भी अधिक चमकदार यह उनके आगे चलता था । धर्मचक्र का अंकन देवगढ़ की 1 1. ऐसे ही कुछ मूर्त्यकनों के लिए दे. - चित्र सं. 51-54, 57, 71, 72, 74 आदि । 2. नव-निधि हैं - ( 1 ) कालनिधि (ऋतु के अनुसार विविध पदार्थ देनेवाला), (2) महाकालनिधि ( नानाविध भोजन पदार्थ देनेवाला), (3) माणवक (आयुध प्रदाता), (4) पिंगल (आभरण प्रदाता), ( 5 ) नैसर्प्य ( मन्दिर प्रदाता ), ( 6 ) पद्म (वस्त्र प्रदाता), (7) पाण्डुक (धान्य प्रदाता ), ( 8 ) शंख (वादित्र प्रदाता ), ( 9 ) सर्वरात्र ( नानारत्न) ( नानाविध रत्नप्रदाता)। नवनिधियों के विस्तृत विवेचन के लिए और भी देखिए - (क) महापुराण (आदिपुराण) पर्व 37, श्लोक 73-82। (ख) त्रिलोकसार, गाथा 682 | 3. दे. - चित्र सं. 88, 89। कुछ मन्दिरों के प्रवेश द्वारों पर भी भरत की मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गयी हैं । 4. ' सहस्रारं हसद्दीप्त्या सहस्रकिरणद्युतिं । धर्मचक्रं जिनस्याग्रे प्रस्थानास्थानयोरमात् ॥' -आ. जिनसेन : हरिवंशपुराण, सर्ग 3, पद्य 29 । और भी दे. - तिलोयपण्णत्ति, 4-9131 5. देवकृत चौदह अतिशय गुण निम्नांकित हैं -- (1) सर्वार्धमागधी भाषा, (2) समस्त विरोधी जीवों में भी पारस्परिक मैत्री, (3) दशों दिशाओं का निर्मल रहना, (4) आकाश निर्मल रहना, (5) वृक्षों में सभी ऋतुओं के पुष्प, फल आदि का आना, (6) एक योजन तक पृथ्वी का दर्पणवत् निर्मल रहना, (7) तीर्थकर के विहार के समय चरणों के नीचे सुवर्ण कमलों का रहना, ( 8 ) आकाश में जय-जय ध्वनि होना, ( 9 ) शीतल, मन्द और सुगन्धित वायु बहना, ( 10 ) गन्धोदक की वृष्टि होना, ( 11 ) भूतल दर्पण की भाँति स्वच्छ रहना, ( 12 ) सम्पूर्ण जीवों को परम आनन्द की प्राप्ति होना, ( 13 ) तीर्थंकर आगे धर्मचक्र चलना, और ( 14 ) तीर्थंकर के समक्ष अष्ट मंगल द्रव्य होना । विस्तार के लिए और भी दे. - (अ) महापुराण, पर्व 25, श्लोक 266-821 (ब) हरिवंशपुराण, सर्ग 3, श्लोक 16, 17, 29 तथा 215 आदि । (स) तिलोयपण्णत्ति, 4-913 आदि। Jain Education International For Private & Personal Use Only मूर्तिकला :: 197 www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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