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________________ के साथ कब से और कैसे सम्बद्ध हुए, यह विचारणीय है। लोहानीपुर से प्राप्त मौर्यकालीन तथा मथुरा से प्राप्त शक एवं कुषाण मूर्तियों के साथ लांछन उत्कीर्ण नहीं किये गये। पहचान के लिए तीर्थंकर का नाम या पंचकल्याणकों में से किसी एक या एक से अधिक को मूर्ति के साथ उत्कीर्ण किया जाता था। परवर्ती काल में लाञ्छनों की कल्पना की गयी और उन्हें मूर्तियों के पादपीठ पर उत्कीर्ण किया जाने लगा। ये लांछन कैसे सम्बद्ध हुए, इस सम्बन्ध में दो विचारधाराएँ हैं : प्रथम विचारधारा के अनुसार इन्द्र, तीर्थंकर को अभिषेक के लिए सुमेरु पर्वत पर ले जाते समय उनके शरीर पर सर्वप्रथम जिस वस्तु की रेखाकृति देखता, उसी को उनके लांछन के रूप में घोषित कर देता। यही विचार किंचित् परिवर्तित रूप में भी मिलता है। इन्द्र तीर्थंकर के दायें पैर के अंगूठे पर रेखांकित वस्तु को उनका लांछन निश्चित करता है। दूसरी विचारधारा के अनुसार तीर्थंकर के राजध्वज का चिह्न ही उनका लांछन माना जाता है। इस विचारधारा में यह आपत्ति है कि कुछ तीर्थंकर राजा नहीं थे और कुछ राजा बनने से पूर्व ही संन्यासी हो गये थे। अतः उनके राजध्वज या उसमें अंकितं (स) “गो वारणाश्वाः कपिकोकपद्माः, स्वस्त्योषधीशी मकरद्रुमांकौ। गण्डो लुलायः किटिसेधिके च, वजं मृगोजः कुसुमं घटश्च ॥ कूर्मोत्पलं शंख भुजंग सिंहः, क्रमेण बिम्ऽक-विकल्पनानि ॥" -जयसेनाचार्य : प्रतिष्ठा पाठ (शोलापुर, 1925), श्लोक 346--17 । (ड) तिलोय पण्णत्ती, अधिकार चार, गाथा 604-605 । (इ) अपराजितपृच्छा, पृ. 566 । (ई) भट्टारक धर्मचन्द्र : गौतमचरित्र (सूरत, 1927), 5, 130-31 । 1. तीर्थंकर के जीवन के महान कल्याणकारी अवसर 'कल्याणक' कहे जाते हैं। ये पाँच होते हैं : (1) गर्भाधान, (2) जन्म, (3) दीक्षा, (4) ज्ञान और (5) मोक्ष। 2. (क) एक मूर्तिखण्ड पर 'नेमेष' (नैगमेष-श्वेताम्बर मान्यतानुसार जिसने महावीर के जीव को देवानन्दा के गर्भ से स्थानान्तरित किया था) का नाम उत्कीर्ण पाया गया है। और भी दे.---व्यूलर : स्पेसीमेन्स आफ़ जैन स्कल्पचर्स फ्राम मथुरा : एपी.इ., जिल्द दो, पृ. 311 और आगे। (ख) एक शंगकालीन मूर्ति (लखनऊ संग्रहालय, क्र. जे. 354) पर नीलांजना नुत्य (दीक्षाकल्याणक) या तीर्थकर की माता (जन्म कल्याणक) का अंकन दर्शनीय है। 3. और भी दे.-डॉ. उ.प्रे. शाह : स्टडीज़ इन जैन आर्ट, पृ. 11। 4. दे.-(अ) हेमचन्द्र : अभिधानचिन्तामणि, संपा. पं. हरगोविन्द शास्त्री (वाराणसी, 1964), काण्ड .. 12, श्लोक 47-48। (ब) पं. आशाधर : अनगार धर्मामत (बम्बई, 1919), अ. 8, श्लोक 41। 5. “जम्मणकाले जस्स दु दाहिणपायम्मि होइ जो चिण्हं । ____ तलक्खणपाउत्तं आगमसुत्ते सुजिणदेहं ॥" -त्रिकालवी महापुरुष, पृ. 56 से उधृत। 6. दे.-(क) आदिपुराण, पर्व 22, श्लोक 299 1 (ख) हरिवंशपुराण, पर्ग दो, श्लोक 73 । (ग) त्रिलोकसार, गाथा 1010। 194 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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