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________________ चिह्न का प्रश्न ही नहीं उठता।' अधिक व्यावहारिक तो यह प्रतीत होता है कि ये लांछन तीर्थंकर के नाम, वंश, गोत्र और जाति आदि के आधार पर ठीक उसी प्रकार निश्चित किये गये होंगे, जिस प्रकार आजकल होता देखा जाता है। पहले वृपभ, छठवें पद्मप्रभ और आठवें चन्द्रप्रभ के नाम पर ही निर्धारित किये गये उनके लांछन (क्रमशः वृषभ, पद्म और चन्द्र) इस विचार की सम्पुष्टि करते हैं। दसवें तीर्थकर शीतल का लांछन वृक्ष, शीतल छाया तो देता ही है। उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लिनाथ का लांछन कुम्भ (कलश), उनके पिता कुम्भराज का स्मारक हो सकता है। तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के वंश उग्र एवं लांछन उरग (सप) की वार्णिक समानता. भी विचारणीय है। उपर्युक्त प्रतीकों के अतिरिक्त जैनधर्म में समवशरण, सहस्रकूट, सिद्धचक्र, अष्टमंगल, अष्टप्रातिहार्य, सोलह स्वप्न, चरणपादुका, नवनिधि, नवग्रह, शार्दूल, मकरमुख, कीर्तिमुख, कीचक, गंगा-यमुना, नाग-नागी आदि का भी प्रचलन है। देवगढ़ की जैन कला में उपर्युक्त प्रतीकों में से अधिकांश का अंकन प्राप्त होता है। समवशरण : समवशरण' की रचना के अन्तर्गत वास्तुकला के प्रायः सभी अंगोपांग समाविष्ट हो जाते हैं। समवशरण का प्रतीक सम्पूर्ण मन्दिर ही माना जा सकता है जिसमें चैत्यभूमि, खातिकाभूमि, लताभूमि, उपवन-भूमि, ध्वजा-भूमि, कल्पांग-भूमि, गृहभूमि, सद्गणभूमि एवं तीन पीठिकाएँ होती हैं। गन्धकुटी : गन्धकुटी की रचना एक के ऊपर एक निर्मित (पूर्वोक्त) तीन पीठिकाओं पर चित्र-विचित्र पापाणों से होती है। चारों ओर लटकती मोतियों की झालरें इसकी सौन्दर्यवृद्धि करती हैं एवं पुष्पमालाओं और धूप के धुएँ से सभी दिशाएँ सुगन्धित हो उठती हैं। स्वाभाविक रूप से सुगन्ध बिखेरते रहने के कारण इसे गन्धकुटी कहा जाता है। चारों ओर से खुली हुई इस कुटी के मध्य स्थित सिंहासन 1. उदाहरणार्थ--बारहवें वासुपूज्य, उन्नीसवें मल्लिनाथ, तथा अन्तिम तीन-नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर-ये पाँच तीर्थकर कुमारावस्था में ही विरक्त हो गये थे। इन्होंने न राज्य और न ही विवाह किया। और भी दे.-त्रिकालवर्ती महापुरुष, पृ. 148-51। 2. 'मानस्तम्भाः सरांसि प्रविमलजलसत्खातिकाः पुष्पवाटी, प्राकारो नाट्यशालाद्वितयमुपवनं वेदिकांतर्ध्वजाद्याः ॥ शालः कल्पद्रुमाणां सुपरिवृतवनं स्तूपहावली, च प्राकाराः स्फटिकोऽन्तसुरमुनि सभा पीठिकाग्रे स्वयंभूः ॥' -त्रिकालवी महापुरुष, पृ. 67 से उद्धृत। 3. समवशरण-रचना के विस्तृत वर्णन के लिए दे.-डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री : आदिपुराण में प्रतिपादित भारत (वाराणसी, 1968), पृ. 140-43 तथा 295-300 । १. दे.-हरिवंशपुराण, सर्ग 23, श्लोक 192 । मूर्तिकला :: 105 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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