SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गये कुछ ग्रन्थों में बहत्तर कलाओं का उल्लेख है। उनमें से एक 'दगमत्तिय' नामक कला भी है जिसके अन्तर्गत मिट्टी की मूर्तियों का निर्माण आता है। इन मूर्तियों में तीर्थंकर-मूर्तियाँ भी सम्मिलित रही होंगी। इसके पश्चात् कुषाणकाल में जैनमूर्तियों का निर्माण पर्याप्त मात्रा में हुआ। इस समय से जैन मूर्तिकला निरन्तर विकास और व्यापकता प्राप्त करती गयी तथा उसने भारतीय कला को अनेक अनुपम कृतियाँ प्रदान की। जैन धर्म में प्राचीन काल से तदाकार प्रतीकों के अतिरिक्त अतदाकार प्रतीकों की मान्यता भी रही है। अतदाकार प्रतीकों में मुख्य और परम्परागत है-धर्मचक्र, स्तूप, त्रिरत्न, चैत्यस्तम्भ, चैत्यवृक्ष, पूर्णघट, श्रीवत्स, शराव-सम्पुट, पुष्पपात्र, पुष्पपडलक, स्वस्तिक आदि । एक अन्य महत्त्वपूर्ण प्रतीक 'आयागपट्ट' भी रहा है। यह एक वर्गाकार या आयताकार शिलापट्ट होता है, जिस पर कुछ अन्य प्रतीक उत्कीर्ण होते हैं। कुछ पर मध्य में तीर्थंकर की लघु मूर्ति अंकित होती है। कुछ आयागपट्ट अभिलिखित भी हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि वे पूजा के उद्देश्य से स्थापित किये जाते थे। मथुरा तथा कौशाम्बी से अनेक सुन्दर शक-कुषाणकालीन आयागपट्ट मिले हैं। लांछन : तीर्थंकरों के लांछन भी प्रतीक कहे जा सकते हैं। ये लांछन तीर्थंकरों 1. दे.-(1) नायाधम्मकहाओ, जिल्द । (पूना, 1940), पृ. 211 (2) समवायांग (अहमदाबाद, 1938), पृ. 77 (अ)। (3) ओववाइय (सूरत, 1914 वि.). पृ. 40, सूत्र 1071 (4) रायपसेणइय, (अहमदाबाद, 1994 वि.सं.)। (5) जम्बुद्दीव पन्नत्ति (बम्बई, 1920), टीका दो, पृ. 136 और आगे। 2. दे.-(1) पं. बेचरदास : भगवान् महावीर नी धर्मकथाओ, पृ. 193 और आगे। (2) अमूल्यचन्द्र सेन : सोसल लाइफ इन जैन लिटरेचर : कलकत्ता रिव्यू, मार्च 1933, पृ. 364 और आगे। (3) डी.सी. दास गुप्ता : जैन सिस्टम आफ़ एजुकेशन (कलकत्ता, 1942), पृ. 74 और आगे। (4) डॉ. हीरालाल जैन : भा. सं. जै. यो., पृ. 284-91 । 3. सभी (24) तीर्थंकरों के लांछन दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराओं में थोड़े-से हेर-फेर के साथ, प्रायः एक समान पाये जाते हैं। तीर्थंकरों के लांछन अग्रलिखित हैं(अ) “वसह गय तुरय वानर कुंचो कमलं च सत्यियौ चन्दो। मयर सिरिवच्छ गण्डय महिस वाराहो य सेणो य ॥ वज्ज हरिणो छगलो नंदावत्तो य कलस कुम्भो य। नीलुप्पल संख फनी सीहो अ जिणाण चिण्हाई॥" -बी.सी. भट्टाचार्य : जैन आइकानोग्राफ़ी (लाहौर, 1939), पृ. 49 पर प्रवचनसारोद्धार से उद्धृत। (ब) “गोर्गजोऽश्वः कपिः कोकः कमलं स्वस्तिकः शशी। मकरः श्रीद्रुमो गण्डो महिषः कोलसेधिकौ ॥ वज्रं मृगोऽजप्टगरं कलशः कूर्म उत्पलम् शंखो नागाधिपः सिंहो लांछनान्यर्हतां क्रमात् ॥ -पं. आशाधर : प्र. सा. 1, 78-791 मूर्तिकला :: 193 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy