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________________ को प्रेम-पाश में संजोये होकर भी सामाजिक शिष्टाचार का पालन करते हुए प्रतीत होते हैं। जैन चहारदीवारी, मं. सं. ग्यारह, मं. सं. बारह, मं. सं. अठारह मं. सं. अट्ठाईस' तथा मं. सं. बारह के सामने पड़े हुए अवशेषों आदि में प्रेमासक्त युग्मों के कुछ ऐसे अंकन प्राप्त होते हैं जिनमें उद्दाम यौवन का उद्वेग प्रकट हुए बिना नहीं रह सका है। उनकी वेश-भूषा वैभव-सम्पन्नता की परिचायिका है। ये अपनी प्रेमिका के प्रायः स्तन-स्पर्श करते हुए दिखाये गये हैं, जबकि कुछ स्थानों पर वे एक-दूसरे को प्रेम-पूर्ण दृष्टि से तो निहार रहे हैं और प्रेमालाप भी कर रहे हैं, किन्तु स्तन-स्पर्श नहीं कर रहे। 2. सम्भोगरत युग्म : यहाँ मं. सं. ग्यारह के दूसरे खण्ड के महामण्डप के प्रवेश-द्वार पर बायें एक ऐसा युग्म' भी प्राप्त होता है, जिसे संभोग-मुद्रा में अंकित किया गया है। 3. शुचिस्मिता : मं. सं. ग्यारह के दूसरे खण्ड के महामण्डप के प्रवेश-द्वार पर बायें एक ऐसी नायिका आलिखित है जो अपने बायें हाथ में दर्पण सँभाले है तथा दायें से ओष्ठ को। प्रतीत होता है कि वह दर्पण की सहायता से अपनी ही रूप-राशि का पान कर रही है। इसी प्रकार का एक और अंकन मं. सं. 18 के महामण्डप के प्रवेश-द्वार पर देखा जा सकता है। एक कोष्ठक में एक युग्म अंकित है। इसमें नायिका दर्पण की सहायता से अपने सौन्दर्य को निहारती और ललाटिका ठीक करती हुई अंकित की गयी है। शुचिस्मिता नायिका की चर्चा करते हुए हम पहले ही लिख चुके हैं कि देवगढ़ में खजुराहो-कला का पूर्व-रूप भली-भाँति देखा जा सकता है। उपर्युक्त सम्भोग मुद्रा में (दे. चित्र संख्या 120) प्राप्त रति-चित्र हमें पुनः एक बार अपने उक्त विचार को दृढ़तर बनाने की प्रेरणा देता है। हमारे इस विचार को यह कहकर नहीं टाला जा सकता कि देवगढ़ ने खजुराहो से प्रेरणा पायी थी न कि खजुराहो ने देवगढ़ से। कारण यह है कि यहाँ की कला खजुराहो की कला की अपेक्षा कम विकसित और 1. दे.--चित्र सं. 121 तथा 109 । 2. दूसरी मंजिल के वायें द्वार पक्ष पर । दे.--चित्र सं. 1201 3. प्रदक्षिणा पथ तथा गर्भगृह के प्रवेश-द्वारों पर । दे.-चित्र सं. 18, 23 । 4. दे.-चित्र सं. 331 5. दे.-चित्र सं. 90। 6. दे.-म.सं. चार और बारह आदि के द्वार। और भी दे.-चित्र सं. 21, 22 एवं 114 1 7. दे.-चित्र सं. 120। 8. दे.-चित्र सं. 1170 9. दे.-चित्र सं. 1161 मूर्तिकला :: 187 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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