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________________ स्थापत्य जब विकास की चरम सीमाओं का स्पर्श कर रहा था तब उसके स्तम्भों, द्वार-पक्षों, तोरणों, गवाक्षों, देवकुलिकाओं और भित्तियों आदि पर अलंकरणों की आवश्यकता हुई। इन अलंकरणों में प्रारम्भ में पत्रावलि-रचना, पशु-पक्षियों के अंकन आदि प्राकृतिक तथा आखेट आदि सामाजिक दृश्यों को स्थान मिला। इसके पश्चात् युग्मों और मण्डलियों का प्रचार बढ़ा। वज्रयानी साधुओं और कौल-कापालिकों की नीतियों के फलस्वरूप मण्डलियों का प्रचार प्रायः कम हो गया तथा युग्मों का अंकन बहुत बढ़ गया। उस समय (ई. 10वीं से 13वीं शती तक) मदनिकाओं, अप्सराओं और सुर-सुन्दरियों के अंकन भी बहुत लोकप्रिय हुए। इन्हें प्रसाधन, पत्र-लेखन, कन्दुक-क्रीड़ा आदि के बहाने अनेक प्रकार की आकर्षक मुद्राओं में प्रदर्शित किया जाने लगा। स्थिति यहाँ तक आगे बढ़ी कि मन्दिर के शान्त और पवित्र वातावरण में काम-शास्त्र के विविध आसनों का मूर्तिगत प्रयोग होने लगा। खजुराहो, कोणार्क, भुवनेश्वर आदि स्थानों पर मध्यकाल में निर्मित मूर्तियों में उत्तानभोगवाद के विभिन्न दृश्य अब भी देखे जा सकते हैं। जहाँ तक देवगढ़ और उसके समीपवर्ती कला केन्द्रों चाँदपुर, जहाजपुर, दूधई, सेरोन, अहार, पपौरा, बानपुर, बरुवासागर आदि का प्रश्न है, वहाँ उक्त स्थिति अपने प्रारम्भिक रूप में ही आकर रह गयी। यहाँ मदनिकाओं और सुर-सुन्दरियों आदि के अंकन बहुत मिलते हैं, पर युग्मों के कम। कुछ युग्म सम्भोग मुद्रा में भी दिख जाते हैं, पर उसकी मूर्तियों का आकार कहीं भी पाँच-छह इंच से अधिक नहीं है, जबकि खजुराहो आदि में उनकी मूर्तियाँ 15 इंच से 40 इंच तक की हैं। (अ) युग्म देवगढ़ में प्रायः दो प्रकार के रति-चित्र मिलते हैं-(1) प्रेमासक्त युग्म और (2) सम्भोगरत युग्म। 1. प्रेमासक्त युग्म : साहू जैन संग्रहालय में प्रेमासक्त युग्मांकित एक ऐसा शिलाफलक' सुरक्षित है जो अपने कला-वैशिष्ट्य और स्वाभाविक आलेखन के लिए उल्लेखनीय है। इसमें प्रेमी और प्रेमिका का शारीरिक लावण्य तो आकर्षक है ही, उनकी भावपूर्ण किन्तु संयत-मुद्रा और स्नेहाधीन-दृष्टि भी उनके पारस्परिक अनुराग को व्यक्त कर रही है। दोनों के वस्त्राभूषण अत्यन्त उच्चकोटि के हैं। वे एक-दूसरे 1. दे.-चित्र सं. 1191 186 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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