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________________ यद्यपि अब इसके मुख और पैरों का कुछ भाग खण्डित हो गया है, तथापि यह मूर्ति आकर्षण का केन्द्र है ही। 5. उदासीन श्रावक : देवगढ़ की जैन कला में ऐसे श्रावकों का भी निदर्शन हुआ है जो आधिभौतिक सन्ताप से सन्त्रस्त हो संसार से विमुख होकर अध्यात्म-पथ को आत्मसात् करना चाहते थे और एतदर्थ वे निर्जन वनों अथवा शान्त जिनालयों में पहुँचकर आत्म-चिन्तन में लीन हो जाते थे। म. सं. दस के उत्तरी स्तम्भ पर पूर्व की ओर बाह्य संसार से विमुख किन्तु आत्म-चिन्तन में लीन एक ऐसे ही उदासीन-श्रावक का अंकन हुआ है। यह श्रावक पद्मासन में बैठकर आत्ममनन कर रहा है। उसकी वेशभूषा में तनीदार दुहरी छाती की अँगरखी तथा सिर पर टोपा दर्शनीय है। उदासीन श्रावकों की वेश-भूषा अब भी प्रायः ऐसी ही होती है। 6. अन्य अंकन : श्रावक-श्राविकाओं के उक्त मूर्यंकनों के अतिरिक्त पाठशालाओं में अध्ययनरत,' अतिथियों की सेवा में संलग्न और मण्डलियों में नृत्य-गीत आदि में तन्मय' मूढंकन भी प्रभावोत्पादक हैं। कुछ श्रावक-मूर्तियों में दाढ़ी का अंकन भी दर्शनीय है। 10. युग्म और मण्डलियाँ सामान्य अनुशीलन देवगढ़ के स्थापत्य में युग्मों और मण्डलियों का उपयोग सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक उद्देश्यों की पूर्ति तथा अलंकरण के लिए हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि शिव-पार्वती और विष्णु-लक्ष्मी आदि के युग्मों के अनुकरण पर अन्य देव-देवियों के और फिर समय-क्रम से सामान्य मनुष्यों के युग्म भी अंकित किये जाने लगे। प्रारम्भ में उनका उद्देश्य धार्मिक रहा होगा और बाद में उसे सामाजिक तथा सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर भी अंकित किया गया होगा। उत्तरवर्ती काल में 1. दे.-चित्र सं. 941 2. दे.-चित्र सं. 77 से 82 तक। 3. दे.-म. सं. 12 के प्रदक्षिणा-पथ और गर्भगृह के प्रवेश-द्वार तथा मं. सं. 18 के महामण्डप का प्रवेश-द्वार आदि। और भी दे.-चित्र सं. 22, 23 आदि । 4. दे.-चित्र सं. 16, 20, 22, 23, 35, 57, 109, 118 तथा जैन चहारदीवारी, विभिन्न मन्दिरों के प्रवेश-द्वार आदि। 5. दे.--चित्र सं. 88, 121 आदि। ऐसे मूर्यंकनों के लिए और भी दे.-म. सं. एक का पृष्ठ भाग, म. सं. 12 के प्रदक्षिणा पथ का प्रवेश-द्वार (दायें पक्ष पर), स्तम्भ सं. 11 आदि। मूर्तिकला :: 185 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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