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उत्तरीय कमर का स्पर्श कर रहा है। दायाँ पैर सीधा और ऊपर को उठा हुआ है जिसे पास में बैठी हुई एक देवी अपने बायें हाथ से सँभाले है तथा दायें से उसका संवाहन कर रही है। माता का मुकुट, कर्णाभरण, मोहनमाला, ठुसी, केयूर, कंकण, मेखला और पायल अत्यन्त सूक्ष्मता से अंकित हैं।
फलक पर फणामण्डित पार्श्वनाथ सहित चौबीस तीर्थंकरों की प्रस्तुति है। इस प्रकार यह पाषाण खण्ड चौबीस तीर्थंकरों का प्रतिनिधित्व तो करता ही है, उनकी माताओं का संयुक्त प्रतिनिधित्व भी पूर्ण सफलता से करता है। माता के मुखमण्डल पर जहाँ एक ओर स्निग्ध पवित्रता और सौन्दर्य की रेखाएँ उभर उठी हैं, वहाँ दूसरी ओर तीर्थंकर की माता होने-जैसे महान् गौरव की भावना भी हिलोरें ले रही है। शय्या के नीचे एक पंक्ति का अभिलेख उत्कीर्ण है। उसमें इस मूर्ति के समर्पणकर्ता का नाम और निर्माणकाल संवत् 1030 (ई. सन् 973) का उल्लेख है।
2. तीर्थंकर-माता का एक अन्य मूर्यंकन : देवगढ़ में तीर्थंकर की माता का अंकन और भी एक स्थान पर हुआ है। सबसे नीचे दो सिंहाकृतियाँ अंकित हैं। उनके ऊपर स्थित शय्या पर माता उपधान पर मस्तक रखे दायें करवट से लेटी हैं। उनके दोनों ओर खड़ी एक-एक देवी चँवर डुला रही है। माता के पीछे कल्पवृक्ष का अंकन है। इस पर विद्यमान आसन पर तीर्थंकर की एक पद्मासन मूर्ति और उसके दोनों ओर एक-एक चँवरधारी यक्ष अंकित हैं।
तीर्थंकर की माता का मूलँकन सर्वप्रथम कदाचित् शक-काल में हुआ। मथुरा में प्राप्त हुए शिलाफलक' के मध्य में तीर्थंकर की माता खड़ी हैं। उनकी वेशभूषा प्रभावोत्पादक है। दायाँ हाथ ऐसा प्रतीत होता है मानो अभयमुद्रा में हो। बायाँ हाथ कमर पर रखा है, जिससे कुहनी आगे को निकल आयी है। माता के दायें खड़ा एक परिचारक उनके मस्तक पर छत्र धारण किये है। वहीं एक परिचारिका हाथ में माला लिये खड़ी है। परिचारक और माता के बीच एक बालक या बालिका हाथ जोड़े खड़ी है। माता के बायें एक स्त्री खड़ी हुई है तथा वह चँवर डुला रही है।
___ओसिया (जोधपुर, राजस्थान) के महावीर मन्दिर की चहारदीवारी में एक दिलहा (टिकड़ा) स्थित है। इसमें चौबीस तीर्थंकरों की माताओं का अंकन हुआ है,
1. ठुसी एक प्रकार का गलहार है। यह आभूषण बुन्देलखण्ड में बहुत प्रचलित रहा है। ठुसी का
तत्सम रूप 'कण्ठश्री' है। भाषा विज्ञान की प्रकृति के अनुसार 'कण्ट थी' से 'ठुसी' शेष रहना सम्भव है। मथुरा की मूर्तियाँ भी इस प्रकार के आभूषण पहने हैं। दे.-मथुरा संग्रहालय की
यक्षी-मूर्ति क्र. जे. दो। 2. श्री दयाराम साहनी ने इसे भ्रमवश संवत् 1803 पढ़ा था। दे.-वही। 3. मं. सं. 30 के गर्भगृह में स्थित 1 फुट 9 इंच ऊँचे और 1 फुट, 4 इंच चौड़े शिलाफलक पर। 4. इसके विशेष परिचय तथा समय निर्धारण आदि के लिए देखिए--डॉ. उ.प्रे. शाह : स्टडीज़ इन
जैन आर्ट, पृ. 10-11 और 78-79 तथा फलक पाँच, आकृति 14 (अ)।
182 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन
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