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________________ (इ) साध्वी मूर्तियाँ देवगढ़ की जैन कला में साध्वियों के अंकन अनेक रूपों में हुए हैं। कभी वे पाठशालाओं में उपस्थित दिखाई गयी हैं, कभी प्रवचन करती हुई अंकित की गयी हैं तो कभी आत्मचिन्तन में लीन आलिखित हैं।। 1. प्रतिक्रमण कराती हुई आर्यिका : मं. सं. दस के मध्यवर्ती तीन स्तम्भों में से दक्षिणी स्तम्भ के पूर्वी कोष्ठक में आर्यिका' का उल्लेखनीय अंकन हुआ है।' एक कोष्ठक में आर्यिका खड़ी हैं। दायें उनका कमण्डलु रखा है और पीछी उलटी टॅगी है। उनके बायें एक स्त्री कोने में दीवार से टिकी हुई उकडूं बैठी है। उसने कुहनियाँ घुटनों पर रख छोड़ी हैं। हाथों के ऊपर का भाग खण्डित हो गया है, जिनमें कदाचित् पीछी रही होगी और वे अंजलिबद्ध भी रहे होंगे। आर्यिका के बायें रखा हुआ छोटा कमण्डलु कदाचित् इसी स्त्री का होगा। इस दृष्टि से यह स्त्री क्षुल्लिका या आर्यिका ही हो सकती है, श्राविका नहीं। प्रतीत होता है कि वरिष्ठ आर्यिका अपने अधीन कनिष्ठ आर्यिका या क्षुल्लिका को प्रतिक्रमण करा रही है। इसी मन्दिर के मध्य के स्तम्भ में भी नीचे ध्यानरत आर्यिका का एक और अंकन है। 2. प्रवचन करती हुई आर्यिका : यहाँ के स्तम्भ संख्या ।। पर दक्षिणी ओर एक विदुषी आर्यिका साध्वियों तथा श्राविकाओं को सम्बोधित कर प्रवचन कर रही हैं। उनके दोनों ओर एक-एक आर्यिका तथा दो-दो श्राविकाएँ बैठी हैं। 3. आर्यिका-संघ : यहाँ के स्तम्भ संख्या तीन पर दक्षिणी तथा पश्चिमी कोष्ठकों में आर्यिका-संघ का अंकन हुआ है। दक्षिणी कोष्ठक में छह आर्यिकाएँ अपनी पीछी-कमण्डलु सहित विनयावनत मुद्रा में आलिखित हैं, जबकि पश्चिमी कोष्ठक में क्रमशः एक साधु के पश्चात् एक आर्यिका, इस प्रकार कुल तीन साधु और तीन आर्यिकाएँ अंकित हैं। इस कोष्ठक के सभी साधु-साध्वियाँ अपनी पीछियाँ तो बगल में दबाये हैं किन्तु उन सभी के कमण्डलु अदृश्य हैं। उपर्युक्त विवेचन और मूर्यंकनों से यह स्पष्ट है कि देवगढ़ की साधु-साध्वी संस्था अत्यन्त कर्तव्यपरायण और सावधान थी। समाज और संघ को सत्पथ पर बनाये रखने हेतु प्रायः वे सभी प्रयत्नशील रहते थे। बहुत कम साधु-साध्वियाँ उत्सूत्र-प्रवृत्ति की ओर उन्मुख थे। 1. ग्यारह प्रतिमा के व्रत पालनेवाली तथा ऐलक के समा- आचरण करनेवाली महिला। इसे सफेद साड़ी, पीली, कमण्डल तथा शास्त्र का ही परिग्रह रखना चाक्षिा और वैठकर हाथ में भोजन करना चाहिए। और भी दे. वृ. जै. शब्दा., पृ. 31 १. - चिक संख्या है। 18) :: उनगढ़ की जन कला : एक सांस्कृतिक वन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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