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है। किन्तु उनमें विविधता दिखाई पड़ती है।
देवगढ़ में उपलब्ध लक्ष्मी-मूर्तियाँ : लक्ष्मी की मूर्तियाँ देवगढ़ में कुछ ही स्थानों पर प्राप्त हुई हैं। उनमें से मन्दिर संख्या 12 के प्रवेश-द्वार के सिरदल पर (बायें) उत्कीर्ण मूर्ति (चित्र संख्या 19) बहुत ही मनोरम और महत्त्वपूर्ण है। इस प्रसन्नमुख देवी का आलेखन वेशभूषा, रत्नाभरण आदि की दृष्टि से भी अत्यन्त प्रभावोत्पादक है। चतुर्भुजी देवी के ऊपर के दायें हाथ में सनाल कमल है जबकि नीचे का वरदमुद्रा में है। इसका बायाँ ऊपरी हाथ खण्डित है और नीचेवाले में सुन्दर कमल है। सुन्दर वस्त्रों के अतिरिक्त इसके पायल, पाँवपोश, कटिबन्ध, चूड़ियाँ, भुजबन्ध, चन्द्रहार, एकावली, स्तनहार, कण्ठश्री, कर्णकुण्डल और रत्नजटित मुकुट दर्शनीय बन पड़े हैं। वरद मुद्रा में स्थित उसके दायें हाथ से मानों भक्त आशान्वित हो उठते हैं। जैसा भाव हाथ की मुद्रा से प्रदर्शित किया गया है वैसा ही भाव मुख पर भी कलाकार ने उत्पन्न किया है, अंग-लावण्य भी उसी के अनुरूप प्रदर्शित है।
(स) नवग्रह
नवग्रहों का अंकन भारतीय कला में प्रचुरता से उपलब्ध होता है। देवगढ़
1. कभी इसे द्विभुजी और कभी चतुर्भुजी कहा गया है। कहीं-कहीं इसकी स्वतन्त्र मूर्तियाँ निर्माण
करने के विधान हैं जबकि अन्यत्र उसकी मूर्ति, विष्णु के पार्श्व में उत्कीर्ण करने के उल्लेख मिलते हैं। दे.--पी.के. आचार्य : मानसार आन आर्किटेक्चर एण्ड स्कल्पचर, पृ. 356-57। इसके वर्ण, आसन तथा हस्तस्थित-वस्तुओं के सम्बन्ध में भी विभिन्नताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। दे.--मत्स्य
महापुराणम् (पूना, 1907 ई.), अध्याय 260, पद्य 40-501 2. (अ) जैन दर्शन में इस नाम की एक भवनवासी कुमारी देवी का उल्लेख मिलता है-"तन्निवासिन्यो
देव्यः श्रीहीधृतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्म्यः पल्योपमस्थितयः ससामानिक-परिषत्काः।" दे.-आ. उमास्वामी : तत्त्वार्थसूत्र, पं. पन्नालाल (साहित्याचार्य) सम्पादित, सूरत, 2472 वीर नि.सं., अध्याय 3,
सूत्र 191 (ब) जयसेन : प्रतिष्ठापाठ में भी श्री आदि 10 देवियों में इसे छठवें स्थान पर गिनाया गया है।
दे.-वही : (शोलापुर, 1925 ई.), श्लोक सं. 742 । 3. दे.-चित्र सं. 191 4. म.सं. 12 के प्रवेश-द्वार के सिरदल पर वायें तथा जैन धर्मशाला में चक्रेश्वरी (चित्र 99) के ऊपर
दायें आदि। 5. नवग्रह अग्रलिखित हैं-रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु । (1) इनके लक्षण
और महत्त्व आदि के लिए दे.- (अ) अपराजितपृच्छा, पृ. 547-48 1 (ब) प्रतिष्ठासारोद्धार, अ. 2, श्लोक 27-36 । (स) ठक्कुर फेरु : वास्तुसार प्रकरण, पृ. 172-74 । (द) दि. जैन व्रतोद्यापनसंग्रह : फूलचन्द्र सूरचन्द्र दोशी सम्पादित (ईडर 1954), पृ. 290-330 । (इ) अगरचन्द्र नाहटा : भारतीय वास्तु शास्त्र में जैन प्रतिमा सम्बन्धी ज्ञातव्य, अनेकान्त, वर्ष 20, कि. 5, पृ. 314-15 । (2) इनकी गति, मान तथा मुहूतं आदि के विस्तृत विवरण के लिए दे.-अपराजितपृच्छा, पृ. 41-421
मूर्तिकला :: 163
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