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दूसरे खण्ड के प्रवेश द्वार पर बायें आलिखित सरस्वती के हाथों में पुस्तक, वीणा और कलश हैं तथा एक हाथ अभयमुद्रा में है ।
2. मं. सं. 12 के गर्भगृह के प्रवेश-द्वार पर सरस्वती मं. सं. 12 के गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर दायें जो सरस्वती उत्कीर्ण हैं, वह अत्यन्त प्रभावोत्पादक, कलामय तथा भव्य बन पड़ी है। इसके ऊपर के दायें हाथ में सूत्र से मजबूती के साथ लपेटी गयी पुस्तक और नीचेवाले में वीणा के तार हैं। ऊपर का बायाँ हाथ वीणा साधे हुए है और दायें में कलश विद्यमान है। इसके आभूषणों में पग में पायल, पाँव- पोश, करधनी, हथफूल, बघमा के चूरा, बाजूबन्द, मोहनमाला, बोरला, कण्ठश्री, कर्णफूल और बैंदी तथा वस्त्र सूक्ष्मता के साथ निदर्शित हैं । इसकी केशराशि घुँघराली है और जूड़ा ऊपर को सँभाल कर बाँधा गया है । 1
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ऊपर के हाथ में सनाल कमल, बायें नीचे के हाथ में पुस्तक है जबकि ऊपरी हाथ की वस्तु अस्पष्ट है । - देखिए - प्रभाकर गोविन्द परांजपे : केन्द्रीय संग्रहालय इन्दौर की संक्षिप्त मार्गदर्शिका (1961), पृ. 5 तथा फलक 7। (द) सरस्वती की खड़ी, संगमरमर की अत्यन्त सुन्दर एक प्रतिमा बीकानेर में भी प्राप्त हुई है जो (आजकल न्यू एशियन एण्टिक्वेरियन म्यूज़ियम, दिल्ली में सुरक्षित) वीणाधारिणी नहीं है। इसके दायें निचले हाथ में माला, ऊपरी में सनाल कमल तथा बायें निचले हाथ में कलश और ऊपरवाले में पुस्तक प्रदर्शित हैं । पादपीठ पर इसका वाहन हंस आलिखित है । इसकी एक और उल्लेखनीय विशेषता यह है कि इसके पादपीठ के दोनों पार्श्वों में एक-एक सेविका वीणा सँभाले हुए प्रदर्शित । इसके लिए और भी देखिए - आयलॉजी इन इण्डिया (दिल्ली, 1950), फलक 57, चित्र (ब) । (इ) बानपुर (झाँसी) के सहस्रकूट - जिनालय में एक ऐसी सरस्वती आलिखित है, जिसके केवल दो हाथ हैं। यद्यपि वह वीणा - धारिणी है किन्तु उसका वाहन और पुस्तक अदृश्य है। (ई) राजनापुर खिनखिनी (अकोला) से प्राप्त सरस्वती की एक धातुमूर्ति सम्प्रति नागपुर के संग्रहालय में प्रदर्शित है। इसके केवल दो हाथ हैं। वह बायें हाथ में पोथी और दायें में वर्तिका धारण किये है। वह ललितासन में कमलासीन है। उसके शरीर पर कोई आभूषण नहीं दिखाया गया है। उपर्युक्त अंकनों के परिप्रेक्ष्य में यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि कलाकार 'जैन वास्तुशास्त्र और मूर्ति विज्ञान' की रक्षा करते हुए, सामयिक परिवर्तन करते गये हैं ।
1. प्रवेश द्वारों पर सरस्वती की मूर्ति अंकित करने की परम्परा देवगढ़ में तो थी ही (दे. मं. सं. 12 के अतिरिक्त 11 और 31 के प्रवेश-द्वार) निकटवर्ती कलाकेन्द्रों पर भी इसका प्रभाव पड़ा था। देखिए - बानपुर के सहस्रकूट - जिनालय का उत्तरी प्रवेश द्वार ।
2. दे. - चित्र सं. 18 और 201
3. एक प्रकार का मारवाड़ी आभूषण ।
4. बुन्देलखण्ड के शिल्पी की रूपसज्जा और अलंकरण - चारुता को प्रदर्शित करने वाली ऐसी ही एक प्रतिमा, अहार ( टीकमगढ़) शान्तिनाथ संग्रहालय में सुरक्षित है। वह ललितासन में आसीन है । चतुर्भुजी है। उसके दायें ऊपरी हाथ में ग्रन्थ, नीचे में कलश तथा बायें ऊपरी में सनाल कमल है जबकि नीचे का हाथ खण्डित हो गया |
160 :: देवगढ़ की जैन कला एक सांस्कृतिक अध्ययन
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