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साथ अंकित यक्षी मूर्तियों के नाम भी उत्कीर्ण हैं। इन नामों से यक्षियों की विभिन्न ग्रन्थों से प्राप्त नामावली से तुलना करने पर कई तथ्य सामने आते हैं।
यह नामावली प्रस्तुत करनेवाले प्रतिनिधि ग्रन्थ तिलोयपण्णत्ति, प्रतिष्ठासारोद्धार, प्रतिष्ठातिलक और अपराजितपृच्छा आदि ग्रन्थों की तथा यहाँ उत्कीर्ण नामावली में यक्षियों के नामों, क्रम, वाहनों, हाथों की संख्या और आयुधों आदि में अत्यधिक विषमता है। इस विषमता को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि इन मूर्तियों के कलाकार के सामने कोई ऐसा ग्रन्थ रहा होगा, जो अब अप्राप्त है। दूसरी ओर यह सन्देह भी होता है कि उक्त कलाकार पर्याप्त शिक्षित और सावधान नहीं था, क्योंकि उसने कुछ नामों को अशुद्ध उत्कीर्ण किया है और कुछ को दो-दो बार उत्कीर्ण कर दिया है। नामों के अक्रम से पाये जाने का एक कारण यह भी हो सकता है कि कलाकार द्वारा तैयार किये जाकर एकत्र रखे हुए मूर्ति-फलकों को स्थपति ने ही अक्रम से जड़ दिया हो।
(स) विद्या-देवियाँ
देवगढ़ के कलाकार ने विद्यादेवियों के अंकन में भी पर्याप्त अभिरुचि दिखायी है। महाकाली नामक आठवीं विद्यादेवी को तो उसने तीन बार अंकित किया है। मं. सं. पाँच के पूर्वी द्वार के ऊपर दायें इस महाकाली नामक आठवीं, नरवाहिनी
1. (अ) विद्या प्रियाः षोडश दृग्विशुद्धि-पुरोगमाहत्यकृदर्थरागाः। यथायथं साधु निवेश्य विद्या-देवीर्यजे दुर्जयदोश्चतुष्काः ।।
-पं. आशाधर : प्र.सा., 3-32 । (व) स्फुरितकरचतुष्कास्तीर्थकृन्नामपुण्यावहविदितविशिष्टट्यष्टसद्भावनोत्काः । प्रकटितजिनमार्गाः संहतैकान्तमार्गाः, विबुध-विनुत-विद्यादेवताः व्याहरामः ॥
-पं. नेमिचन्द्रदेव : प्रतिष्ठातिलक (बम्बई, 1914), पृ. 283 । 2. दे.-चित्र सं. 61 3. (अ) महाकाली तमालाभा पुरुषवाहनस्थिता।
अक्षसूत्रं तथा वजं धत्तेऽभयं च घण्टिकाम् ॥ -डॉ. द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल : वास्तुशास्त्र, जिल्द 2, संस्कृत पाठ (लखनऊ, मुद्रणवर्ष नहीं
दिया), पृ. 2751 (व) चक्रधिकं साधुषु यः समाधिं तं सेवमाना शरभाधिरूढा । श्यामा धनुः खड्गफलास्त्रहस्ता बलिं महाकालि जुषस्व शान्त्यै ॥
-पं. आशाधर : प्र.सा., 3-44 (स) भक्त्यान्विता साधुसमाधि-रूप-सद्भावनासिद्धजिनाङ्घ्रि पद्म। चापं फलं वाणमसिं बभार या तां महाकालिमहं यजामि ।।
-पं. नेमिचन्द्रदेव : प्र. ति., पृ. 286-87 ।
मूर्तिकला :: 157
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