________________
श्री साहनी का ध्यान उस वृक्ष के शिखर पर अंकित तीर्थंकर-मूर्ति की ओर गया प्रतीत नहीं होता, अन्यथा उसके रहते हुए एक साधारण वृक्ष को वे कल्पवृक्ष की संज्ञा न देते। डॉ. स्टैला क्रेमरिश ने, चाँदपुर (ललितपुर) में उपलब्ध एक ऐसे ही युगल को गोमेध और अम्बिका माना है।' उन्होंने देव और देवी दोनों की गोद में एक-एक बालक को देखकर यह समीकरण कर दिया है। परन्तु यह विचारणीय है कि अम्बिका के दो बालक (कभी-कभी एक ही) केवल उसी के साथ दिखाये जाते हैं और वह स्वयं किसी अन्य देव के साथ बैठी हुई कभी नहीं दिखायी जाती। इसका कारण यह है कि तेईसवें तीर्थंकर के यक्ष-यक्षी धरणेन्द्र-पद्मावती परस्पर पति-पत्नी भी थे, जबकि अम्बिका और गोमेध (पाव) नहीं। अतः यहाँ एक सम्मान्य और उत्तरदायित्वपूर्ण देवी को, विशेष रूप से साक्षात् तीर्थंकर के चरणों में (वृक्ष पर तीर्थंकर की तीन मूर्तियाँ) एक पराये देव के साथ सटकर बैठा हुआ दिखाया जाना भारतीय संस्कृति और परम्परा के सर्वथा विरुद्ध है।
डॉ. उमाकान्त प्रेमानन्द शाह के अनुसार यह युगल-मूर्ति तीर्थंकर के माता-पिता की होनी चाहिए। यह कल्पना उस समय हास्यास्पद लगती है जब पति
और पत्नी दोनों की गोद में एक-एक बालक होता है जबकि तीर्थंकर अपने माता-पिता की इकलौती सन्तान होते हैं। डॉ. क्लॉज ब्रून ने इस युगल का सम्बन्ध संकोच से अम्बिका और गोमेध से जोड़ा है, पर वे इसके लिए कोई तर्क नहीं दे सके हैं। डॉ. उर्मिला अग्रवाल ने भी कदाचित् डॉ. स्टैला क्रेमरिश के अनुकरण पर इस युगल को गोमेध-युगल कहा है।
डॉ. हीरालाल जैन ने नैगमेश की मूर्तियों के प्रसंग में देवगढ़ की इस युगल-मूर्ति पर भी उल्लेखनीय विचार दिया है। किन्तु नैगमेश से इसका सम्बन्ध स्थापित करना सम्भव नहीं, क्योंकि उसकी कल्पना केवल श्वेताम्बर जैन साहित्य में है। और देवगढ़ में केवल दिगम्बर जैन धर्म का प्रचार रहा है।
वास्तव में ये मूर्तियाँ धरणेन्द्र-पद्मावती की ही हैं। क्योंकि-(1) देवगढ़, खजुराहो और चाँदपुर आदि स्थानों पर प्राप्त ऐसी अनेक मूर्तियों पर सर्प की फणावलि द्रष्टव्य है, (2) इनके पृष्ठवर्ती वृक्ष के शिखर पर अंकित तीर्थंकर के मस्तक पर भी प्रायः फणावलि देखी गयी है, (3) गोद में स्थित बालक से देवी की पुत्रदायिनी
1. दी हिन्दू टेम्पल, जिल्द दो (कलकत्ता, 1946), पृ. 397, फलक 54 । 2. स्टडीज़ इन जैन आर्ट (बनारस, 1955), पृ. 21, फलक 17, आकृति 45-46 । 3. सन् 1956 के देवगढ़-मेला में पढ़े गये एक भाषण से, (पृ. 5)। 4. खजुराहो स्कल्पचर्स एण्ड देयर सिग्नीफ़िकंस (दिल्ली, 1964), पृ. 110, आकृति 82 । 5. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान (भोपाल, 1962), पृ. 361, आकृति 33-341 6. ऐसी कुछ मूर्तियों के लिए द्रष्टव्य चित्र सं. 106 से 110 तक।
154 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org