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________________ आयुध दिखाये गये हैं। परिकर में दोनों ओर एक-एक चँवरधारिणी परिचारिका अंकित है। मस्तक पर पद्मासन तीर्थंकर को मालाधारी विद्याधरों द्वारा अर्चित दिखाया गया है। ऊपर के दोनों कोणों पर एक-एक कायोत्सर्गासन तीर्थंकर मूर्ति आलिखित मं. सं. 19 की दशभुजी चक्रेश्वरी : मन्दिर संख्या 19 में स्थित चक्रेश्वरी मूर्ति का भी उल्लेख यहाँ आवश्यक है। इस दशभुजी देवी के सभी हाथ खण्डित हो चुके हैं। उसका वाहन गरुड़ अपनी विशिष्ट मुखाकृति के कारण हमारा ध्यान आकृष्ट करता है। परिकर आदि की दृष्टि से यह ऊपर वर्णित दोनों मूर्तियों से समानता रखती है। मानस्तम्भ पर चक्रेश्वरी : स्तम्भ संख्या 11 (चित्र 45) पर पूर्वी ओर दशभुजी चक्रेश्वरी का मनोरम अंकन है (दे. चित्र 111)। इसके गरुड़ की सशक्त उड़ान दर्शनीय है। ___अम्बिका : अम्बिका को हम मातृत्व की देवी कहें तो अत्युक्ति न होगी। बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ की शासन-देवी यह यक्षी कदाचित् देवगढ़ की भी अधिष्ठातृ देवी रही है, तभी तो उसकी मूर्तियों की संख्या यहाँ कई सौ है' और तभी तो वह केवल नेमिनाथ के साथ न दिखायी जाकर ऋषभनाथ और पार्श्वनाथ के साथ भी अंकित की गयी है। म. सं. 12 की अम्बिका मूर्तियाँ : मन्दिर संख्या 12 के गर्भगृह में प्रवेश द्वार के दायें सात फुट ऊँचे और तीन फुट दो इंच चौड़े शिलाफलक पर निर्मित पाँच फुट सात इंच ऊँची तथा दो फुट नौ इंच चौड़ी अम्बिका की मूर्ति अनेक दृष्टियों से उल्लेखनीय है। इसका वाहन सिंह अपेक्षाकृत विशाल, सशक्त और स्वाभाविक बन पड़ा है। पार्श्व में खड़ा उसका एक बालक वस्त्राभूषणों से भव्यता के साथ अलंकृत दिखाया गया है। गोद में स्थित दूसरा बालक एक हाथ में आम्रफल धारण किये है और दूसरे से अपनी माँ के कर्णाभरण से खेल रहा है। यक्षी के आभूषण और वस्त्र आदि तो कलागत समृद्धि के द्योतक हैं ही, उसकी क्षीण कटि, भावपूर्ण मुद्रा आदि भी अत्यन्त प्रभावोत्पादक है। पृष्ठभाग में आम्रगुच्छक भी सूक्ष्मता के साथ आलिखित है, जिसके ऊपर पद्मासन में एक तीर्थंकर (लघु आकृति) निर्मित है। इस 1. कुछ उल्लेखनीय अम्बिका मूर्तियों के लिए दे.-चित्र सं. 103 से 105 तक तथा 1091 2. दे.-मं.सं. 4 की भीतरी पश्चिमी दीवार में जड़ी हुई एवं चित्र सं. 75। 3. दे. मं.सं. 12 के महामण्डप में (बायें से दायें) तीसरी मूर्ति तथा चित्र सं. 63 । 4. ऋषभनाथ के साथ अम्बिका का अंकन कम के कम छठी शती में भी होता था। अकोटा में प्राप्त मूर्ति-समूह में से एक कांस्य-प्रतिमा ऐसी ही है। विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य-डॉ.उ.प्रे. शाह : स्टडीज इन जैन आर्ट (बनारस, 1955), पृ. 191 5. दे.-चित्र सं. 105 1 152 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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