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________________ चक्रेश्वरी' के साथ चक्र दिखाये गये। विभिन्न उद्देश्यों और प्रसंगों के अनुसार इनके आसन और मुद्राएँ भी विभिन्न प्रकार की स्वीकृत हुई। स्थापत्य के विकास के साथ मूर्तिकला का भी विकास होता गया। देव-देवियों का सम्बन्ध मन्दिर-स्थापत्य से ही रहा है। उन्हें उनके पद और विशेषता के आधार पर मन्दिर के विभिन्न भागों में स्थान दिया गया। उदाहरण के लिए-इन्द्र-इन्द्राणी को तीर्थंकर के सिंहासन पर चमरधारी के रूप में, द्वारपालों को द्वारपक्षों पर तथा दिक्पालों को वेदी के या मन्दिर की बाह्य-भित्तियों के कोणों पर स्थान दिया गया। देवगढ़ में यक्षियों की अपेक्षा यक्षों की मूर्तियाँ बहुत कम मिलीं और जो भी मिली हैं उनके साथ या समीप सम्बद्ध यक्षी की मूर्ति अवश्य मिलती है। जबकि स्वतन्त्र रूप में यक्षियों की मूर्तियाँ यहाँ सैकड़ों हैं। यह ध्यान देने की बात है कि एक ही तीर्थंकर के यक्ष और यक्षी के परस्पर दाम्पत्य का उल्लेख कहीं नहीं मिलता। एक मात्र तेईसवें तीर्थंकर के यक्ष धरणेन्द्र और यक्षी पद्मावती के दाम्पत्य के प्रमाण मिलते हैं। यही कारण है कि इन दोनों की मूर्तियाँ भी एक-दूसरे से सटाकर या पद्मावती को धरणेन्द्र की गोद में बैठाकर अंकित की गयी हैं।' अंकन में शास्त्र-विधि की उपेक्षा : यह तथ्य विचारणीय है कि अन्य स्थानों की भाँति देवगढ़ का कलाकार भी देव-देवियों के अंकन में शास्त्रीय विधानों का कम और प्रचलित परम्पराओं तथा तात्कालिक परिस्थितियों का अधिक अनुगामी था। यही कारण है कि देवगढ़ या ऐसे ही अन्य अनेक स्थानों पर देव-देवियों की जो मूर्तियाँ मिलती हैं उनमें शास्त्रीय लक्षण शत-प्रतिशत कदाचित् ही घटित होते हों। 1. (अ) धर्माभाधकरद्वयालकुलिशा चक्राङ्कहस्ताष्टका सव्यासव्यशयल्लसत्फलवरा यन्मूर्तिरास्तेऽम्बुजे । तार्थे वा सह चक्रयुग्मरुचकत्यागैश्चतुर्भिः करैः । पञ्चेष्वासशतोन्नतप्रभुनतां चक्रेश्वरी तां यजे। --पं. आशाधर : प्र.सा.,3-156 (ब) या देव्यूर्ध्वकरद्वयेन कुलिशं चक्राण्यधःस्थैः करैः अष्टाभिश्च फलं वरं करयुगेनाद्यन्म एवाथवा ॥ धत्ते चक्रयुगं फलं वरमिमां दौर्भिश्चतुर्भिः श्रितां ताये तां पुरुतीर्थ पालनपरां चक्रेश्वरी संयजे ।। -नेमिचन्द्र देव : प्र.ति., 7-1 (स) षट्पादा द्वादशभुजा चक्राण्यष्टौ द्विवज्रकम् । मातुलिङ्गाभये चैव तथा पद्मासनापि च ॥ गरुडोपरिसंस्था च क्रेशी हेमवर्णिका। --भुवनदेवाचार्य : अपरा., पृ. 566 / (द) यतिवृषभः तिलोयपण्णत्ति, भाग एक, डॉ. ए.एन. उपाध्ये तथा डॉ. हीरालाल जैन द्वारा सम्पादित (शोलापुर, 1943), 4-9271 2. दे.-चित्र सं. 99, 100, 111 तथा 98 । 3. (अ) भावदेवसूरि : पार्श्वनाथ चरित्र, सर्ग 6, श्लोक 50-68 । (व) वादिराजसूरि : पार्श्वनाथ चरित्र, सर्ग 12, श्लोक 421 146 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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