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________________ इतना ही नहीं, एक कलाकार के विचार और शैली दूसरे कलाकार से प्रायः भिन्न ही होते थे तभी तो हमें एक ही देवी कभी दो हाथों सहित, कभी चार हाथों सहित, कभी आठ या सोलह या बीस हाथों सहित भी मिलती है। कभी-कभी तो शास्त्र-विहित देवी और कलाकार द्वारा प्रणीत देवी में किसी भी प्रकार की समानता नहीं होती, परन्तु हमें फिर भी उन दोनों का समीकरण करना ही पड़ता है। उदाहरण के लिए-हम तेईसवें तीर्थंकर की यक्षी पद्मावती को लेंगे। प्रतिष्ठासारोद्धार के अनुसार यह देवी कुर्कट (Cobra) सर्प पर आसीन, तीन फणो की आवलि सहित और छह हाथों में विभिन्न वस्तुएँ धारण किये हुए तथा अपराजितपृच्छा' के अनुसार उसे कुक्कुट (मुर्गा') पर आसीन तथा चार हाथोंवाली होना चाहिए। भैरव-पद्मावती-कल्प" के अनुसार अन्य विशेषताओं के साथ उसके तीन नेत्र और तीन फणों की अवलि होना चाहिए। परन्तु इन सबके विपरीत देवगढ़, चाँदपुर और खजुराहो आदि अनेक स्थानों पर प्राप्त पद्मावती की मूर्तियों में फणावलि कुछ के मस्तक पर और कुछ के साथवाले तीर्थंकर के मस्तक पर मिलती है। प्रायः दो हाथ मिलते हैं, तीन नेत्र किसी के नहीं मिलते तथा सबसे अधिक विचित्र बात यह है कि पद्मावती की प्रायः सभी मूर्तियाँ एक वालक को लिये हुए अंकित की गयी हैं। इससे भी विचित्र बात यह है कि एक तीर्थंकर की यक्षी को दूसरे तीर्थंकर के साथ भी दिखाया गया है। कहने का तात्पर्य यह है कि उपलब्ध मूर्तियों का समीकरण केवल शास्त्रीय विधानों के आधार पर ही नहीं, प्रत्युत कलागत परम्पराओं और तात्कालिक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य 1. उदाहरण के लिए चक्रेश्वरी के अपरा (पृ. 566) के अनुसार 12, प्र.सा. (3-156) के अनुसार 16 तथा प्रतिष्ठातिलक (7-1) के अनुसार 20 भुजाएँ होना चाहिए। 2. अध्याय तीन. श्लोक 1771 3. भुवनदेवाचार्य की यह मूल कृति डॉ. वी.भट्टाचार्य द्वारा सम्पादित होकर ओरियण्टल इंस्टीट्यूट, बड़ौदा से 1950 में प्रकाशित हुई है। 4. 'पद्मासना कुक्कुटस्था ख्याता पद्मावतीति च।' सूत्र 211, पद्य 371 5. मुद्रित प्रति में कुक्कुट के स्थान पर 'कुकुट' या 'कर्कट' होना चाहिए था, जिसका अर्थ एक प्रकार का सर्प होता है। इस देवी का सम्बन्ध सर्प से ही है, कुक्कुट (मुर्गे) से नहीं। 6. (सूरत से प्रकाशित), अध्याय दो, श्लोक 2 और 12 । 7. कहीं-कहीं पद्मावती की मूर्तियाँ बिना वालक के भी प्राप्त हुई हैं। उदाहरणार्थ तेवर (त्रिपुरी) से प्राप्त पद्मावती की एक त्रिमूर्तिका, इसके ऊपर के दोनों हाथों में सनाल-कमल, निचला दायाँ अभय मुद्रा में और निचले वायें हाथ में कलश है। देखिए-सागर विश्वविद्यालय पुरातत्त्व-पत्रिका (सं. एक, 1967), फलक 201 8. दे.-चित्र सं. 63. यह मं. सं. 12 महामण्डप में (बायें से दायें) तीसरी मर्ति है. जिसमें तीर्थंकर तो फणावलिसहित हैं, किन्तु परिकर में नवग्रह तथा दोनों पार्यों में अम्विका यक्षी के आलेखन हैं। यहाँ और भी दे.-फणावलिधारी सुमतिनाथ (चित्र सं. 56)। तथा चित्र सं. 75 में आदिनाथ के साथ एक ओर अम्बिका तथा दूसरी ओर चक्रेश्वरी का अंकन हुआ है। मूर्तिकला : 11: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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