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________________ दिखाई गयी हैं कि वे जूड़े में बँधने के बाद भी बहुत बड़ी मात्रा में कन्धों और पीठ पर बिखरी हुई रहती हैं। और कभी-कभी तो वे इतनी लम्बी होती हैं कि पिण्डलियों तक आ पहुँचती हैं। भट्टारकों की एक प्रवृत्ति शासन-देवों और शासन-देवियों को अपेक्षाकृत अधिक महत्त्व देने की भी रही है। प्रारम्भ में तीर्थंकर मूर्तियों के साथ उनकी शासन-देव-देवियों का अंकन नहीं होता था परन्तु भट्टारकों की उक्त प्रवृत्ति के फलस्वरूप ऐसा होने लगा। इतना ही नहीं, जैसा कि पहले कह चुके हैं, स्थिति यहाँ तक आयी कि तीर्थंकर मूर्ति की अपेक्षा शासन-देवी की मूर्ति बीसगुनी बड़ी तक बनायी जाने लगी। देव-देवियों के प्रति भट्टारकों का यह आग्रह यहाँ तक बढ़ा कि नवग्रहों का अंकन, जो सर्वत्र प्रवेश-द्वारों पर ही उपलब्ध होता है, तीर्थंकर-मूर्तियों के साथ कराना भी प्रारम्भ कर दिया गया, इससे तीर्थंकर-मूर्तियों के ऐश्वर्य में वृद्धि न होकर विद्रूपता ही आयी है। गुप्तोत्तर काल से चन्देल काल तक और उसके भी पश्चात् मुगलकाल के पूर्व तक तीर्थंकर की मूर्ति में सौन्दर्य और आकर्षण में अभिवृद्धि भले ही हुई हो, पर वैराग्य और शान्ति की अभिव्यक्ति का निरन्तर ह्रास होता गया।। __इस प्रकार हमने देवगढ़ की तीर्थंकर मूर्तियों का यह सामान्य अनुशीलन प्रस्तुत किया है। अब हम कुछ प्रतिनिधि मूर्तियों का तुलनात्मक और विश्लेषणात्मक विवरण प्रस्तुत करेंगे। 1. दे.-मं.सं. 13 के मण्डप में (वायें से दायें) वीसवीं मूर्ति तथा गर्भगृह की तीसरी वेदी पर अवस्थित मूर्ति, दे.-चित्र सं.68 । मं.सं. 12 के प्रदक्षिणापथ में (वायें से दायें) पचीसवीं मूर्ति, दे. -चित्र सं. 73 तथा जैन चहारदीवारी (दक्षिणी) में जड़ी हुई मूर्तियाँ, दे. -चित्र सं. 69। 2. ऐसी मूर्तियाँ मन्दिर संख्या 12 के प्रदक्षिणापथ में (बायें से दायें) 25वें फलक पर (दे.-चित्र सं. 73) तथा मन्दिर संख्या 13 के मण्डप में (वायें से दायें) 20वें फलक (दे.-चित्र सं. 68) पर निर्मित हैं। 3. दे.-चित्र संख्या 99, 100, 103, 104, 106, 107, 108. 110 आदि। 4. यहाँ के भी अनेक द्वारों पर इनका अंकन हुआ है। दे.-चित्र सं. 6, 19-20, 35 आदि। 5. दे.- (अ) मं. सं. 13 के मण्डप में (वायें से दायें) 20वाँ फलक (चित्र सं. 68) मं. सं. 12 के महामण्डप में (दायें से बायें) तीसरा फलक (चित्र संख्या 63) तथा इसी मन्दिर के गर्भगृह के मूलनायक (चित्र सं. 51)। (ब) यहाँ तीर्थंकर के अतिरिक्त देवी मूर्तियों में भी नवग्रहों के अंकन का प्रचलन था। दे. -जेन चहारदीवारी के बाहरी और उत्तर में (दायें से बाय) पाँचवें स्थान पर ऊपर जड़ी हुई खण्डित देवी मूर्ति। 128 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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