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________________ था तो निश्चित ही वह अशास्त्रीय था, क्योंकि जैन-देव-शास्त्र के अनुसार देवियाँ कभी गर्भवती नहीं होती। यदि साधारण रूप में ही पेट को बड़ा दिखाया गया है तो वह भी उचित नहीं, देवियों के सौन्दर्य में बड़े पेट का विद्रूप-अंकन बाधक ही होगा। इसी प्रकार कुछ स्थानों पर एक देवी या स्त्री को मुनि-मूर्ति से सटी हुई दिखाया गया है। यह भी शास्त्रीय मर्यादाओं के विरुद्ध है। कुछ कलाकार अत्यन्त नव-सिखिया रहे प्रतीत होते हैं, उन्होंने मूर्तियों के अंग-प्रत्यंगों के अनुपात का ध्यान नहीं रखा। कुछ कलाकारों को या उनके निर्देशकों को 'चतुर्विंशति-पट्ट' निर्माण करने की सनक सवार थी। उनके निर्माण में कलाकार अत्यन्त असफल रहे। कुछ 'चतुर्विंशति-पट्टों' में मूलनायक की मूर्ति तो अच्छी है, किन्तु शेष मूर्तियाँ कला की दृष्टि से बहुत ही निम्न स्तर की रह गयी हैं।' कभी-कभी शिलापट्टों पर स्थानाभाव ने भी कलाकार को असफल बनाया है, जब वह चौबीसवीं मूर्ति को मूलनायक के पैरों के नीचे अंकित करता है और कभी-कभी तो उसे तेईस मूर्तियाँ ही अंकित करके रह जाना पड़ता है। इसका कारण उचित निर्देशन का अभाव, योजनाहीनता अथवा कलाकार का प्रमाद है। वर्गीकरण देवगढ़ में प्राप्त मूर्तियों का वर्गीकरण विविध प्रकार से सम्भव है। आकार की दृष्टि से दो इंच से तेरह फुट तक की मूर्तियाँ उपलब्ध हैं। आसनों और मुद्राओं की दृष्टि से कायोत्सर्गासन, पद्मासन, ललितासन, राजलीलासन, अर्धपर्यंकासन तथा धर्मोपदेश मुद्रा, वितर्कमुद्रा, त्रिभंगमुद्रा, कटिहस्तमुद्रा, आलिंगनमुद्रा, नृत्यमुद्रा और सम्भोगमुद्रा आदि उल्लेखनीय हैं। कालक्रम की दृष्टि से उन्हें मुख्यतः तीन श्रेणियों में रखा जा सकता है : (1) छठवीं शती ईसवी तक निर्मित, (2) सातवीं शती ई. से 12वीं शती ईसवी तक निर्मित और (3) बारहवीं शती से अठारहवीं शती ईसवी तक। शैली की दृष्टि से इन्हें आलंकारिक और अनालंकारिक वर्गों में विभक्त 1. 'देवनारकाणामुपपादः। --आ. उमास्वामी : तत्त्वार्थसूत्र (सूरत, 2472 वीर सं.) 2-34 । 2. दे.-मं.सं. एक के पृष्ठ भाग में जड़ी हुई मूर्तिमाला तथा मं.सं. 12 के अर्धमण्डप के आगे के __स्तम्भों पर निर्मित मूर्तियाँ। और भी दे.-चित्र सं. 80, 16 आदि। 3. दे.-मं.सं. 6, 12 (महामण्डप) तथा जैन चहारदीवारी में जड़ी हुई अनेक मूर्तियाँ, तथा चित्र सं. 55, 63, 70 आदि। 4. दे.-मं.सं. 4, 12, 25, 26 और 29 में स्थापित चौबीस मूर्तियाँ तथा चित्र सं. 64 । 5. दे.-मं.सं. 4। 6. दे.-मं. सं. 4, 12, 25, 26 तथा चित्र सं. 65 । 124 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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