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स्वतन्त्र मूर्तिकला
मूर्तिकला की दृष्टि से देवगढ़ की अपनी स्वतन्त्र शैली थी, जो गुप्तकाल में स्पष्टतर हो उठी। इस शैली में मूर्तियों के चेहरे लम्बोतर होते हैं। मथुरा, सारनाथ, अहिच्छत्र और कौशाम्बी से इस शैली में भिन्नता है।
देवगढ़ में ऐसी अनेक मूर्तियाँ विद्यमान हैं, जो मुख्यतया आध्यात्मिक हैं और बाह्य-संसार के प्रति उदासीनता का स्पष्ट भाव अभिव्यक्त करती हैं। कुछ मूर्तियाँ तो अपनी सज्जागत समृद्धि एवं केन्द्रस्थित तथा चारों ओर स्थित मूर्तियों के एकीकरण की दृष्टि से गुप्तकला की सफलता को भी पीछे छोड़ गयी हैं। शासन-देवियों और विद्या-देवियों की मूर्तियों में अलौकिक सौन्दर्य एवं अद्भुत चमत्कार की सृष्टि करने में कलाकार पूर्ण रूप से सफल हुआ है।
__ मूर्तियों के माध्यम से देवगढ़ में मानव जीवन के प्रायः सभी अंगों (पहलुओं) पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। हम वहाँ एक ओर वीतराग उपदेश देते हुए उपाध्याय परमेष्ठी को देखते हैं तो दूसरी ओर परस्त्री लम्पट को पिटता हुआ' भी देखते हैं। पशु-पक्षियों, लता-वृक्षों और प्रतीकों का अंकन करने में भी यहाँ का कलाकार पीछे नहीं रहा।
देवगढ़ की अधिकांश मूर्तियाँ शिलापट्टों पर उत्कीर्ण की गयीं। पाषाण को चारों ओर से कोरकर बनायी हुई स्वतन्त्र मूर्तियाँ यहाँ बहुत कम हैं।
परिकर और अलंकरण
देवगढ़ की प्रायः सभी मूर्तियाँ अपने परिकरों और अलंकरणों के साथ प्रस्तुत की गयी हैं, इसका कारण यही हो सकता है कि उन्हें शिलापट्टों पर उत्कीर्ण किया गया है। इससे जहाँ मुख्य-मूर्ति में भव्यता और जैन-प्रतिमा-शास्त्र में समृद्धि का
1. दे.-चित्र सं. 53, 54 आदि। 2. दे.-चित्र सं. 511 3. दे.-चित्र सं. 61, इस मूर्ति का शिर इस समय साहू जैन संग्रहालय में सुरक्षित है। 4. दे.-चित्र सं. 99 से 110 तक। 5. दे.-मन्दिर सं. 5, 9, 12 आदि के द्वारों पर आलिखित विद्या-देवियों की मूर्तियाँ। 6. दे.-दि. जैन चैत्यालय एवं साहू जैन संग्रहालय में प्रदर्शित उपाध्याय-मूर्तियाँ तथा चित्र सं. 83
और 84। 7. दे.-मं.सं. 4 के प्रवेश-द्वार के सिरदल पर बायें तथा चित्र सं. 115। 8. इनके विस्तृत विवरण के लिए दे.-पाँचवाँ अध्याय। 9. इनके विस्तृत परिचय के लिए दे.-पाँचवाँ अध्याय। 10. इनका सविस्तार परिचय दे.-पाँचवाँ अध्याय।
122 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन
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