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________________ परम्परा देवगढ़ में ही कई शताब्दियों तक चलती रही। अन्य स्थानों पर भी मानस्तम्भों का निर्माण हुआ और आज भी होता आ रहा है । मानस्तम्भों का स्वरूप प्रायः सर्वत्र एक समान मिला है। भूमि पर एक के ऊपर एक निर्मित तीन पीठिकाओं (अधिष्ठानों) पर स्तम्भदण्ड स्थित रहता है जिसके शीर्ष पर एक 'सर्वतोभद्रिका' स्थापित होती है। पीठिकाएँ कभी-कभी अलंकृत भी होती हैं । स्तम्भदण्ड कहीं अलंकृत मिले हैं और कहीं अल्प- अलंकृत या अलंकरण - विहीन । सर्वतोभद्रिका सर्वत्र अलंकृत ही प्राप्त हुई है । उसके चारों ओर एक-एक स्तम्भयुक्त देवकुलिका अंकित होती है, जिनमें सर्वतोभद्रिका या तो उसी पाषाण में उत्कीर्ण की गयी होती है या पृथक् रूप से स्थापित कर दी जाती है । इस सबके ऊपर एक लघु शिखराकृति का आलेखन होता है । सर्वतोभद्रिका चतुष्कोण ही होती है जबकि स्तम्भदण्ड वृत्ताकार या चतुष्कोण या अष्टकोण होता है । पीठिकाओं का आकार प्रायः स्तम्भदण्ड के समान होता है । सम्पूर्ण मानस्तम्भ कभी एक, कभी दो और कभी तीन पाषाणों द्वारा निर्मित होता है । मानस्तम्भों की ऊँचाई भिन्न-भिन्न तीर्थंकरों के समवसरणों के अनुपात में भिन्न-भिन्न होती है । उपलब्ध मानस्तम्भों की ऊँचाई विशेष रूप से उल्लेखनीय नहीं है और न ही सम्बद्ध मन्दिर की ऊँचाई से उसकी ऊँचाई का अनुपात मिलता है। 1 मध्यकालीन भारत में जैन मन्दिर के सम्मुख विशाल स्तम्भ बनवाने की प्रथा विशेषतः दिगम्बर जैन समाज में रही है। दक्षिण भारत और विन्ध्य प्रान्त में ऐसे स्तम्भों की उपलब्धि प्रचुर परिमाण में हुई है। प्राचीन वास्तु विषयक ग्रन्थों में कीर्तिस्तम्भों की आंशिक चर्चा अवश्य है, पर मानस्तम्भों के विषय में वे मौन हैं। यद्यपि जैन पौराणिक साहित्य तो इसका अस्तित्व बहुत प्राचीन काल से बताता है, पर उतने प्राचीन या सापेक्षतः अर्वाचीन स्तम्भ उपलब्ध कम हुए हैं। उपलब्ध साधनों से तो यही कहा जा सकता है कि मध्यकाल में जैन वास्तुकला का वह एक अंग अवश्य बन गया था। यह मानस्तम्भ इन्द्रध्वज का प्रतीक होना अधिक युक्ति-संगत जान पड़ता है, जो भगवान् के विहार के आगे रहता था । देवगढ़ आदि में पाये गये मानस्तम्भ के अवशेषों से यह फलित होता है कि मानस्तम्भों की मौलिक परम्परा भले ही एक सी रही हो, पर प्रान्तीय कला विषयक एवं निर्माण शैली सम्बन्धी पार्थक्य उनमें स्पष्ट है । देवगढ़ आदि में पाये जाने वाले अधिक मानस्तम्भ ऐसे हैं, जिनके ऊपर के भाग में शिखर-जैसी आकृति है । ' देवगढ़ में इस समय 19 मानस्तम्भ विद्यमान हैं । " परन्तु जैसा कि द्वितीय अध्याय के अन्त में स्पष्ट किया गया है, इनमें से सभी को मानस्तम्भ कहना उचित 1. मुनि कान्तिसागर : खंडहरों का वैभव (काशी, 1959 ई.), पृ. 119-201 2. कुछ प्रमुख मानस्तम्भों के लिए देखिए - चित्र संख्या 43 से 48 तक । 118 :: देवगढ़ की जैन कला एक सांस्कृतिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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