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शेली और अलंकरण आदि की दृष्टि से इसे कलचुरिकालीन (लगभग 900 ईसवी) वास्तु कहा जा सकता है।
(10) शेष मन्दिर
उपरिलिखित नौ मन्दिरों के अतिरिक्त शेष में से अधिकांश का निर्माण कलचुरियों के शासनकाल में हुआ होना चाहिए। चन्देलकाल में वास्तु कला के जो प्रमुख लक्षण प्रचलित थे वे देवगढ़ में कदाचित् ही मिलते हैं। उनका अविकसित और प्रारम्भिक रूप अवश्य यहाँ दृष्टिगत होता है। इससे स्पष्ट है कि वास्तु-निर्माण की परम्परा देवगढ़ में दसवीं शताब्दी से आगे नहीं बढ़ी। एक-दो मन्दिरों का निर्माण मुगलकाल में हुआ प्रतीत होता है। जीर्णोद्धार का कार्य जैसा कि अभिलेखों से प्रकट होता है, नौवीं शती से चलता रहा है।
इससे मन्दिरों के मूलरूप में कुछ अन्तर अवश्य आया होगा। अभी कुछ वर्षों से इस क्षेत्र की प्रबन्धक-समिति द्वारा जो बड़े पैमाने पर जीर्णोद्धार कराया गया है, उसमें मूलरूप की सुरक्षा का यथोचित ध्यान रखा गया है। सर्वश्री कनिंघम, फुहरर
और साहनी आदि पूर्ववर्ती लेखकों ने इन मन्दिरों का जिस रूप में उल्लेख किया है, वे प्रायः उसी रूप में आज भी पर्याप्त जीर्णोद्धार हो चुकने पर भी देखे जा सकते हैं। इससे उक्त कथन की पुष्टि होती है।
5. मानस्तम्भ
मानस्तम्भ का निर्माण कदाचित् सर्वप्रथम मथुरा में (शक-कुषाण काल में) हुआ था। उससे पूर्व मौर्य सम्राट अशोक विशाल और कलापूर्ण स्तम्भों का निर्माण करा चुका था। जैन-परम्परा में स्तम्भों को मानस्तम्भ का रूप देकर मन्दिरों के सामने निर्मित किया जाता रहा है। मन्दिर को समवसरण का प्रतीक माना जाय तो उसकी चारों दिशाओं में एक-एक मानस्तम्भ निर्मित होना चाहिए, यद्यपि ऐसा उदाहरण कदाचित् कहीं प्रस्तुत नहीं किया गया। आचार्य जिनसेन के अनुसार मानस्तम्भ का उद्देश्य जिनेन्द्रदेव के त्रिलोकातीत मान (श्रेष्ठता) को सूचित करना है। मथुरा के अनन्तर सर्वाधिक प्राचीन मानस्तम्भ कदाचित् देवगढ़ में ही उपलब्ध हुए हैं। यह
1. उदाहरणार्थ मन्दिर संख्या 6 का निर्माण अव से लगभग 500 वर्ष पूर्व हुआ होगा और समीपवर्ती
ध्वस्त स्मारकों की मूर्तिया इसमें स्थापित कर दी गयी होंगी, क्योंकि इसका भवन स्थापत्य-कला
की दृष्टि से बहुत ही आधुनिक प्रतीत होता है। देखिए-चित्र संख्या 9। .). मानस्तम्भानु महामानयोगात् त्रैलोक्यमाननात्।
अन्वर्थ-संज्ञया तज्ज्ञमानस्तम्भाः प्रकीर्तिताः । -आदिपुराण, 92, 102 ।
स्थापत्य :: 117
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