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________________ 1709 के अभिलेख उत्कीर्ण हैं । ये तीनों इस मन्दिर के निर्माण काल की नहीं, बल्कि जीर्णोद्धार की सूचना देते हैं 1 गुप्तकालीन वास्तु के अन्य लक्षण भी इस मन्दिर में स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं । द्वार के अलंकरण में कल्पवृक्ष, युगल - छवि और पत्रावलि उनमें से मुख्य हैं । इस मन्दिर की सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषता है उसकी भित्तियों के निर्माण में पाषाण चिनने की शैली, जो साँची के 17वें मन्दिर ( 425 ई.), ऐहोल के लघुमन्दिर (लगभग 5वीं शती) और हुच्चिमल्लिगुडि मन्दिर' (6वीं शती), तथा बादामी के समीपस्थ महाकूटेश्वर मन्दिर ( लगभग 6वीं शती) की बहिर्भित्तियों से अत्यधिक समानता रखती है । ( 6 ) मन्दिर संख्या 18 इस मन्दिर (चित्र संख्या 28 ) में प्राचीनता के वे सभी लक्षण विद्यमान हैं जो उपर्युक्त मन्दिर संख्या 4 में दृष्टिगत होते हैं । जिन मन्दिरों से और जिन दृष्टियों से उसकी तुलना की गयी है, उन्हीं से इसकी भी निःसन्देह की जा सकती है। इसके स्तम्भ और प्रवेश द्वार उस (मं. सं. 4) की अपेक्षा कहीं कम अलंकृत हैं। इसे गुप्तकाल के तुरन्त पश्चात् की कृति मानने में संकोच नहीं होना चाहिए । ( 7 ) मन्दिर संख्या 28 उपर्युक्त मन्दिर की भाँति मन्दिर संख्या 28 ( चित्र संख्या 32-33 ) का योगदान भी मन्दिर - वास्तु के विकास में कम नहीं है । यह 'पूर्णभद्र' मन्दिर है ।" राहापगों के अतिरिक्त अर्धकोणक और कोणक पगों के लघु आकार से सम्पूर्ण रेखाकृति को गोल आकार मिल गया है। अधिष्ठान की ऊँचाई नहीं के बराबर है । बहिर्भित्तियों पर दोहरी कार्निश, मण्डप (जो नष्ट हो चुका है) का सद्भाव, " प्रवेश-द्वार का सीमित अलंकरण, एक अंग - शिखर की संयोजना, मुख्य शिखर की अलंकरणहीनता और छत से ही पतला होते जाना आदि ऐसी विशेषताएँ हैं जो इस मन्दिर को गुप्तकाल और : 1. (अ) लुइस फ्रेडरिक इण्डियन टेम्पल्स एण्ड स्कल्पचर, पृ. 191, फलक 1511 (व) विसेण्ट ए. स्मिथ : 'ए हिस्ट्री आव फाइन आर्ट आव इंडिया एंड सीलोन', फलक 17 (अ) । 2. लुइस फ्रेडरिक : वही, पृ. 209, फलक 180 3. वही, पृ. 234, फलक 203 । 4. वही, पृ. 225, फलक 1901 5. देखिए - विन्यास रूपरेखा, चित्र क्र. 421 6. विन्यास रूपरेखा (चित्र क्र. 42 ) से भी इसके सद्भाव का बोध हो सकता है। 112 :: देवगढ़ की जैन कला एक सांस्कृतिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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