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________________ मन्दिर वास्तु में इन सब दृष्टियों से यह मन्दिर अपनी विशिष्ट स्थिति रखता है। इस मन्दिर के गुप्तकाल या उसके तुरन्त पश्चात् निर्मित हुए होने में कोई सन्देह नहीं, क्योंकि : (1) इसके मण्डप में स्थित (चित्र 52) तथा गर्भगृह में स्थित मूलनायक की मूर्ति भी उसी समय की कृति है।' (2) राहापगों की देवकुलिकाओं के कारण वह दशावतार-मन्दिर का समकालीन प्रमाणित होता है। (3) भित्ति के पाषाणों की चिनाई यहीं के मन्दिर संख्या 4 (छठवीं शती), साँची के मन्दिर संख्या 17 (425 ई.), ऐहोल के लघु (5वीं शती) और हुच्चिमल्लिगुडि (6वीं शती) के मन्दिरों और बादामी के समीपस्थ महाकूटेश्वर मन्दिर (लगभग 6वीं शती) की बहिभित्तियों से अत्यधिक समानता रखती है। (1) प्रवेश-द्वार का सीमित अलंकरण, मण्डप का प्रारम्भिक रूप और शिखर का अविकसित रूप गुप्तकाल की विशेषताएँ हैं, जो इसमें प्राप्त होती हैं। (4) मन्दिर संख्या 31 देवगढ़ की गुप्तोत्तरकालीन कृतियों में मन्दिर संख्या इकतीस (चित्र 35 एवं 36) उल्लेखनीय है। अधिष्ठान की सादगी, प्रवेश-द्वार का अलंकरण, दोहरी कार्निश और सपाट छत इसे सातवीं शती में निर्मित हुआ सिद्ध करते हैं। इन्हीं दृष्टियों से इसकी तुलना पतौरा (सतना) के पतियानदाई मन्दिर से की जा सकती है, जो गुप्तकालीन स्थापत्य का अच्छा उदाहरण है। इसके प्रवेश-द्वार को गुर्जर-प्रतिहारकालीन सप्तशाखा द्वार का प्रारम्भिक रूप कहा जा सकता है। गंगा-यमुना, तोरण के मध्यवर्ती तीर्थंकर और नवग्रह का अंकन यहाँ अत्यन्त सूक्ष्मता से हुए हैं। ड्योढ़ी पर अंकित मत्तवारण और कल्पवृक्ष आदि तो इसके गुप्तोत्तरकालीन होने में सन्देह नहीं रहने देते। (5) मन्दिर संख्या 4 मन्दिर संख्या 1 (चित्र 1) गुप्तकाल के तुरन्त पश्चात् निर्मित हुआ होगा। अधिष्ठान की सादगी, स्तम्भों का सीमित अलंकरण, अर्धमण्डप और उसके ऊपर का अविकसित लघु-शिखर, दोहरी कार्निश और प्रवेश-द्वार पर गंगा-यमुना का आलेखन इस मन्दिर की प्राचीनता के द्योतक हैं। मण्डप के दायें स्तम्भ में संवत् 1221 का, बायें स्तम्भ में संवत् 1207 का और बहिर्भित्ति पर (सामने बायें) संवत् 1. दे.-चित्र संख्या ।। . दे.. गोपीलाल अमर, पतियानदाई : एक गुप्तकालीन जैन मन्दिर', अनेकान्त, (फरवरी, 1967), वर्ष 1). किरण 6. पृ. : 10-46 । स्थापत्य :: 111 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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