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________________ द्वार-पक्षों पर अपने-अपने वाहनों पर आरूढ़ गंगा-यमना सहायक देवियों के साथ प्रदर्शित हैं। उनके घटों पर नाग-नागी के अंकन हैं। फिर प्रत्येक द्वार-स्तम्भ पर तीन शाखाएँ प्रारम्भ होती हैं। प्रथम और तृतीय शाखाओं में पत्रावलि और खजूर-पत्रों का आलेखन है। मध्य की शाखाओं में चार-चार कोष्ठकों में तीर्थंकरों की पद्मासन मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। सिरदल के मध्य में निर्मित कोष्ठक में एक और उसके दोनों ओर चार-चार पद्मासन तीर्थंकर मूर्तियों के अंकन हैं। गर्भगृह की सज्जा और उसमें स्थित मूर्तियाँ भी महत्त्वपूर्ण हैं। इन सबके अतिरिक्त इसमें एक ऐसी विशेषता है, जो वास्तुकला की दृष्टि से उसे देवगढ़ के सभी जैन मन्दिरों से पृथक् करके दशावतार मन्दिर के समीप ला खड़ा करती है। बात यह है कि इसके तीन राहापगों में ठीक वैसी ही विशाल देवकुलिकाएँ निर्मित हुई हैं जैसी दशावतार मन्दिर में हैं। एक देवकुलिका (दक्षिण) में अब मध्यवर्ती मूर्ति नहीं है, उसके स्थान पर एक गवाक्ष निर्मित कर दिया गया है। उत्तरी देवकुलिका में एक विशाल पद्मासन और उसके दोनों ओर अनेक कायोत्सर्गासन मूर्तियाँ अंकित हैं। पृष्ठवर्ती (पूर्वी) देवकुलिका में उसी की भाँति तीर्थंकर मूर्तियाँ हैं, इसके द्वार-स्तम्भों पर गंगा-यमुना का चित्रण उल्लेखनीय है। देवकुलिकाओं के निर्माण, अधिष्ठान की ऊँचाई, द्वारों और स्तम्भों के अलंकरण तथा अन्य समानताओं की दृष्टि से यह और दशावतार मन्दिर एक ही समय निर्मित हुए प्रतीत होते हैं। आश्चर्य नहीं कि इसका प्रेरणा-स्रोत वह या उसका प्रेरणास्रोत यह रहा हो। जिनकी रूपरेखा शास्त्रीय विधानों से समता रखती हो ऐसे मन्दिरों में देवगढ़ में कदाचित् यह मन्दिर प्रथम है। यह षोडशभद्र' मन्दिर है। रेखाचित्र में इसकी सोलह कलाएँ (कोण) स्पष्ट देखी जा सकती हैं।' समरांगणसूत्रधार के अनुसार इसे 'नन्दिघोष' नामक प्रासाद कहना होगा। इसके 24 स्तम्भों की ऐसी संयोजना की गयी है कि उससे एक 'क्रास' ( + ) का आकार बन गया है। सम्पूर्ण रूपरेखा, विधान से इतनी अधिक अनुकूलता रखती है कि जैसे समरांगणसूत्रधार के लेखक ने ‘नन्दिघोष' प्रासाद के रूप में इसे ही आदर्श माना हो। 1. देखिए-वराहमिहिर : वृहत्संहिता : (वंगलौर, 1947), अध्याय 56, श्लोक | 2. देखिए-रेखाचित्र क्र. 40। 3. नन्दिघोष के लक्षण के लिए देखिए-अपराजितपृच्छा, पृ. 503-504 । 4. भोजदेव का समय ग्यारहवीं शताब्दी ई. माना जाता है । परिचय, समय आदि के लिए देखिए-(क) डॉ. रामजी उपाध्याय : संस्कृत साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ. 277-78 | (ख) डॉ. जगदीशचन्द्र जैन : प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ. 650-601 (ग) अपराजित पृचना, भमिका (अंगरेजी), पृ. 11 तथा 27 आदि । 110 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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