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________________ अतः अर्धमण्डप को उक्त संवत् 919 से लगभग 100 वर्ष पूर्व तक की कृति माना जा सकता है। निर्माण क्रम के इस विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकलता है कि मं. सं. 12, दो मौलिक मन्दिरों का समन्वित और परिवर्तित रूप है और उसका निर्माण चौथी शताब्दी ई. से 9वीं शताब्दी ई. तक होता रहा। अब इस मन्दिर के अर्धमण्डप आदि पाँच अंगों का विश्लेषण प्रस्तुत किया जाता है। अर्धमण्डप (चित्र 16) चार स्तम्भों पर आधारित है। सामने के दो स्तम्भ एक समान हैं और शेष दो असमान। वे मूल स्तम्भों के खण्डित हो जाने से समाविष्ट किये गये होंगे। उनके अलंकरण और परिधि की असमानता तथा अलंकरणरहित चौकियाँ उक्त अनुमान की पुष्टि करती हैं। उनके शीर्प मौलिक हैं। सामने के स्तम्भों पर चौकियों के ऊपरी भाग के चारों ओर क्षेत्रपालों का अंकन है और उनके ऊपर शिखराकृतियों से युक्त देवकुलिकाओं में तीन-तीन ओर तीर्थंकरों की कायोत्सर्गासन और एक-एक ओर यक्षियों की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। उनके ऊपर दोनों स्तम्भों पर प्रत्येक ओर एक-एक कायोत्सर्ग तीर्थंकर अंकित हैं, जिनके दोनों ओर एक-एक सुन्दरी का आकर्षक अंकन है। सुन्दरियों के पार्श्व में एक-एक पुरुषाकृति और नारी-आकृति उत्कीर्ण की गयी है। इस दृश्य के ऊपर पत्रावलि का अलंकरण और उसके ऊपर विभिन्न देव-देवियों का चित्रण है। इसके भी ऊपर नृत्यमण्डली का मनोरम आलेखन हुआ है। जिसके ऊपर जालीदार कटाव, इसके पश्चात् समग्र मण्डप का भार संभालने में दत्तचित्त कीचक दिखाये गये हैं। तोरण पर गोमुख यक्ष के अनन्तर विविध वाद्ययन्त्रों से सज्जित एक लम्बी संगीत-मण्डली (दे. चित्र संख्या 118) का अंकन काफी आकर्षक बन पड़ा है। दक्षिण-पूर्वी स्तम्भ पर एक ऐतिहासिक अभिलेख' उत्कीर्ण है, जिससे देवगढ़ का प्राचीन नाम जानने में और प्रतिहार राजा भोजदेव की राज्य-सीमा तथा समय के निर्धारण में सहायता मिलती है। अर्धमण्डप और महामण्डप के मध्य जो रिक्त स्थान (खुला चबूतरा) पड़ा है, उसका अस्तित्व विचारणीय है। ऐसी कोई परम्परा दृष्टिगत नहीं होती, किन्तु पट्टदकल के विरूपाक्ष-मन्दिर (740 ई.) में यह बात देखी जा सकती है। वहाँ मन्दिर के मुख्य भवन से कुछ दूर हटकर, जैसा कि यहाँ हुआ है, एक स्वतन्त्र अर्धमण्डप का निर्माण हुआ है। यहाँ की भाँति वह भी चार स्तम्भों पर आधारित है। महामण्डप : महामण्डप (चित्र 17) की रचना, जैसा कि सिद्ध किया जा चुका है, चौथी शताब्दी ई. में एक स्वतन्त्र मन्दिर के रूप में हुई थी। मन्दिर का यह रूप सर्वथा अद्वितीय है। 36 स्तम्भों पर आधारित यह महामण्डप वास्तव में 'श्रीमण्डप' 1. दे.-परिशिष्ट दो, अभिलेख क्र. एक। 104 :: देवगढ़ की जैन कला : एक सांस्कृतिक अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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