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________________ के रूप में निर्मित हुआ था । श्रीमण्डप, वे प्रकोष्ठ होते हैं जिनकी रचना तीर्थंकर के समवशरण के ठीक मध्य में की जाती है। इनकी संख्या 12 होती है । प्रस्तुत मण्डप में वे इसी संख्या में देखे जा सकते हैं।' ये 'श्रीमण्डप' प्रत्येक दिशा में वीथि-पथ को छोड़कर चार चार भित्तियों के अन्तराल से तीन-तीन होते हैं। इनके मध्य में 'गन्धकुटी' की रचना होती है । गन्धकुटी वह चतुष्कोण प्रकोष्ठ होता है, जिसकी रचना 12 श्रीमण्डपों के मध्य तीन पीठिकाओं पर होती है। इसके मध्य में सिंहासन पर विराजमान होकर तीर्थंकर धर्मोपदेश देते I प्रस्तुत महामण्डप के मध्य में भी एक चतुष्कोण वेदी थी, जिसे 'गन्धकुटी' के रूप में ही निर्मित किया गया होगा । अब यह वेदी नहीं है, पर उसकी स्थिति रेखाचित्र से देखी जा सकती है। इसी वेदी में जड़ा हुआ जो अभिलेख ( चित्र 49 ) प्राप्त हुआ है, उसमें जैसा कि कहा जाएगा, 18 भाषाएँ प्रयुक्त हुई हैं । तीर्थंकर का धर्मोपदेश 18 महान् भाषाओं (और सात सौ लघु भाषाओं ) में होता है, जिनके प्रतीक रूप में यह अभिलेख प्रतिष्ठापित किया गया होगा । इस प्रकार यह महामण्डप मूलतः एक ऐसा मन्दिर है, जिसके समान दूसरा मन्दिर कदाचित् ही कहीं निर्मित हुआ होगा । इस दृष्टि से निःसंकोच कहा जा सकता है कि भारतीय मन्दिर स्थापत्य को देवगढ़ की इस महामण्डप के रूप में एक अद्भुत देन है । अन्तराल : इस मन्दिर ( संख्या 12 ) का अन्तराल भी उल्लेखनीय है । इसके भीतर दायें-बायें एक-एक लघु- मन्दिर की संयोजना हमें उलझन में डाल देती है । इन लघु- मन्दिरों को गर्भगृह या उसके अंग नहीं कह सकते, क्योंकि उसके और उनके बी प्रदक्षिणापथ विद्यमान है और ये प्रदक्षिणापथ से सटे हुए नहीं हैं । इनका निर्माण कम-से-कम प्रदक्षिणापथ के पश्चात् ही हुआ था, क्योंकि उसकी बहिर्भित्तियों में संयोजित दो-दो यक्षी - मूर्तियाँ प्रत्येक लघु मन्दिर द्वारा ढक ली गयी हैं, जिससे प्रदक्षिणापथ के प्रभाव में और यक्षी मूर्तियों की पूर्ण ( 24 ) संख्या में शोचनीय कमी पड़ी है।" इनका निर्माण अन्तराल के साथ भी नहीं, बल्कि उसके कम-से-कम एक 1. दे. - रेखाचित्र क्र. 39 । 2. (अ) ए. कनिंघम : आ. स. इ. : जिल्द 10, पृ. 100-101। (च) ए. फुहरर : भा. ए. इंश., पृष्ठ 120 (स) दयाराम साहनी ए. प्रो. रि., भाग दो, पृ. 9 । (द) श्री परमानन्द बरया ने भी इस तथ्य की पुष्टि की है। 3. इसे लगभग तीन वर्ष पूर्व क्षेत्रीय प्रबन्ध समिति ने इसलिए हटा दिया है कि उससे सम्पूर्ण मन्दिर की संयोजना और आकर्षण में बाधा होती थी । 4. दे. - रेखाचित्र क्र. 391 5. यतिवृषभाचार्य : तिलोयपण्णति, 4-902 1 6. यह कभी श्री साहनी जैसे विद्वान् को भी भ्रम में डाले बिना न रही, फलतः उन्होंने इन यक्षी मूर्तियों की संख्या 20 दी है। दे. - ए. प्रो. रि., 1918, पृ. 91 Jain Education International For Private & Personal Use Only स्थापत्य :: 105 www.jainelibrary.org
SR No.002774
Book TitleDevgadh ki Jain Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size10 MB
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