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श्रीकल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी. पाशबद्धौ, मातापित। भगवन्तं समुचिताऽमितविभूषणविभूषितं वि. धाय, महीयसा हर्षोद्गारेण शुभेऽहनि श्रेयस्यां वेलायां लेखनशाला इसी कारण पाठशाला भेज कर पंडित कने,
सर्व-विद्या अरु कलायें सिखाना जहाँ तक बने । बुला पंडित ज्योतिषी को शुभ लग्न दिखवा लिया,
विविध वाजा साज संयुत भूपने उत्सव किया ॥ ३ ॥ गोल--धानी द्राख श्रीफल सींगोड़ा खारक चणा,
टोपरा साकर चारोली बर्फी पेड़ा अति घणा । फल फूल एलची पाक-पिता मखाणा मोदक लिये,
खजूर दाडिम सेव ताजी थाल भर भेले किये ॥ ४ ॥ सर्व मेवे विविध वस्तु साथ लेकर कर धरे,
पाठशाला में लेजा कर छात्रों को वितरण करे । सोने के खड़िये पाटीयें फिर क मती चांदी तनी,
रत्नजडित की लेखनी ले जो थी सोने की बनी ॥ ५ ॥ तम्बोल ताजे बना बीड़े करी केसर छांटने,
पूर्वोक्त वस्तु कीध संग्रह विद्यार्थियों को बांटने । आगे अध्यापक योग्य भूषण स्त्र नाना जाति के,
स्वर्ण निर्मित कड़ा कंठा मुद्रड़ी बहु भांति के ॥ ६ ॥ पालखी रथ अश्व हरित सर्व किंकर साथ थे,
भट्ट चारण बिरुद बोले प्रभु त्रिलोकी नाथ थे । इसीविध शुभलग्न समये पाठशाला पद धरे,
सर्वजनता थी उपस्थित मुख से जय जय रख करे ॥ ७ ॥ चलित आसन इन्द्र पहुंचे प्रश्न पूछे प्रभु कहे,
वदे सुरपति कार्य अनुचित त्रिजगपति ये वीर है। इन्हें विद्याभ्यास कैसा ? ज्ञानधारी नाय है,
सर्व वस्तु भाव जानत सकल इनके हाथ है ॥ ८॥ अल्पज्ञानी कोइ पंडित इन्हें क्या पाठन करे,
हुआ अविनय क्षमा मांगो इन्द्र यो मुख ऊचरे । तदा पंडित त्यक्त आसन प्रभु चरण में शिर धरे,
उच्च भासन बैठि जिनवर शास्न सहु परगट करे ॥ ९ ॥
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