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( १०८ )
श्री कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी.
मसाले बहुत विविधजातिव्यञ्जनादयः -
पकोडे स्वादु वेसणके, बडे भी मूंग की कणके । थे तीखे, इत्यादि सब बने घीके ॥ ३० ॥
३१ ॥
मूंगीया केर रायडोड़ी, लाते हैं शाक दौड़ दोड़ी । बालोल करमदा काचा, नीला चणा मिरच में साचा पीपर अरु चवला की फलियें, सांगरी मूंग की कलियें । करेलां वावलिया भींडी, तोरई रींगड़ा तींडी ॥ ३२ ॥ मोगरी काचरी लाना, कुमटीया फोग अरु धाना । रायता छाश अरु दधिके, एक से एक थे अधिके ॥ ३३ ॥ खीचिया सारेवड़ा पापड़, पातले जैसे थे कापड़ | इत्यादिक बहुते साग, जीरा मिरचों का बहु लाग ॥ ३४ ॥ मसाला गर्म मिलवाये, घृत में पहिले तलवाये | हींग के वघार सुगंधा, खाते समय छोड़ दिये धंधा ॥ ३५ ॥ लेने को सामने जोवे, जीभ तो फरफरी होवे । चणा की मेथी की भाजी, चंदलेवा पालखा साजी ॥ ३६ ॥ सुआ अरु चीलकी भाजी, वत्थुआ परजन से राजी । देगचां भर भर के दूध भर भर के वाटके पीध ॥ ३७ ॥ अब तो भर गये पेट, डकारें आवती ठेठ । शुद्ध पाणि से चलू कीजे, न मावे पेट में उत्तर दीजे ॥ ३८ ॥ पीछे दिये पान - तम्बोल, केसर के छींटे रंगरोल । हीर चीर मखमल पटंबर, पहरने देत हैं सुन्दर ॥ ३९ ॥ फूलों की माल पहिरावे, हीये में हर्ष उभरावे । आभूषण पहिरामणी देवे, भूप-सिद्धार्थ जस लेवे ॥ ४० ॥
३८ भगवतो नामकरणं तत्स्वरूपवर्णनश्च —
इत्थमशिला मुखपाणिप्रचालनादिना शुचीभूतौ ज्ञातिप्रभृतीन्
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