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पञ्चमं व्याख्यानम् ।
(१०७) भोज्यपक्वान्नाऽऽदयः
मालवी भूमि में उपजे, बहुत ही श्रेष्ट गहुं निपजे । पानीयुत हाथ से मसल्या, शुद्ध कर चक्की में दल्या ॥ १८ ॥ वस्त्र इक मलमल को आण्यो, मेदो वह उसीसे छाण्यो । घृतपक्क पुरसिया खाजा, दन्त में होत आवाजा ॥ १९ ॥ लायकर पुरसिये पकवान, जीमन को हो गये सावधान । अनेकों जाति के लाडू, मानो! ज्यों जीमते साडू ॥ २० ॥ सिंहकेसरीये मेले, मसाले अधिक ही भेले । कंसार मगद के मोदक, कीटीया दालीया शोधक ॥ २१ ॥ ऐसे मोदक जो खावे, बुड्डा भी मर्द हो जावे । लायकर पुरसी मुरकी, खानेको जीभ तब फुरकी ॥ २२ ॥ जलेबी मुंह में डाले, रस के गट्टके चाले । पेड़े जब पेट में पड़िये, मेलते मुंह में गुड़िये ॥ २३ ॥ मखाना मुह में डाले, बड़ बड़ वाक्य तव चाले। घेबर जब मुखमें धरिये, चाखतां घृत बहु झरिये ॥ २४ ॥ झीणा झीणा तारकी फीणी, सेवां अब आणी है झीणी । देख देख दहीथरे खावे, मन में तो हसते जावे ॥ २५ ॥ तिलों की सांकली खाधी, सिंगोड़े सेव से साधी। अब आया साकरिया सीरा, बुड्ढों का मन हुआ अधीरा ॥ २६॥ लाई अब उत्तम लापसी, छोटे मोटे इसीसे धापसी। पकवान अनेका आवे, मेवे की खीचड़ी खावे ॥ २७ ॥ अब आई सुगंधी शाल, खाने को हो गये उजमाल । मूंग की दाल है भेली, सुगंधी स्वच्छ घृत ठेली ॥ २८ ॥ खीचडी पातली अरु पोली, इकवीस की होत इक कोली। सालणां मुंह में भावे, जीभ पर पानी फिर आवे ॥ २९ ॥
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