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________________ (१०६) __ श्रीकल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी. कहीं पर मखमली आसन, खर्च की नहीं है विमासन । सोने के थाल रखवाये, पटों पर सर्व सजवाये ॥ ६ ॥ कटोरे वाटकी प्याले, स्वर्ण के एक से आले । लोटे अरु ग्लास बहुतेरे, अनेकों कर दिये भेरे ॥ ७॥ अभी सब न्यात बुलवावे, अनेकों आदमी आवे । स्वजन अरु मित्रगण सारे, स्वजाती बहुत विस्तारे ॥८॥ आयकर पांत पर बैठे, आसन पर कोई नहीं हेठे। आई सब पुरसने वाली, दीखती बहु रूपाली ॥९॥ अनोपम वस्त्र से शोभित, रूप अरु कांति से मोहित । किये हैं सोल सिणगारा, आभूषण दिव्य विस्तारा ॥ १० ॥ हाथ में शुद्ध जल झारी, तरुणों की दृष्टि को ठारी । आन कर हाथ धुपवाये, देखते काम उभराये ॥ ११ ॥ भोज्यफलाऽऽदय:--- फलों की प्रथम थी त्यारी, दिखावट अजब ही न्यारी । अखोड़ मिश्री की जाति, इसीविध अनेकों भांति ॥ १२ ॥ चोपड़ी चारोली केला, रायण और श्रीफल भेला । बहुत से बदाम अरु पिस्ते, मूल्य में वो नहीं सस्ते ॥ १३ ॥ द्राख अरु आम खरबूजे, नारंगी अनार तरबूजे । सेव सहतूत अरु निम्बू, खारक खजूर फिर जम्बू ॥ १४ ॥ गूदा और पेमदी बेर, आनके कर दिये ढेर । छोलकर सेलड़ी लाई, मधुररस सब के मन भाई ॥ १५॥ सीताफल रामफल अधिके, जामफल बीजोरा बढ़के । इत्यादि बहुत किये भेले, सुस्वादु लाये फिर केले ॥ १६ ॥ सभी के सामने पुरसे, चखतां चित्त बहु विकसे। मुख में मेल कर खावे, पेट का फिक्र नहीं लावे ॥ १७ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002772
Book TitleKalpasutrartha Prabodhini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendrasuri
PublisherRajendra Pravachan Karyalay Khudala
Publication Year1933
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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