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युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
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आत्मा का सन्तोष) करती हैं, प्रतिपद ( प्रतिस्थान पर) कृता से शूद्रोपद्रव का नाश
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करती हैं ।
१०. हे चक्रेश्वरी माता ! कल्पवृक्ष से उपमित आप विश्वभर में चमत्कार करती है। अभीष्ट फल को धारण करती हैं। संशय बिना देती हैं। ऐसा सोचकर मैने भी आपकी स्तुति की है, और यही मेरा निश्चय है, कि मेरा मन " श्री जिनदत्त" की भक्ति से सदा सर्वदा तल्लीन रहें ।
विशेष :
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जैन धर्म में चौवीस तीर्थंकर (भगवान) होते हैं। सभी भगवानों के अधिष्ठायक शासनदेव और शासन देवियाँ होती हैं ।
सर्वप्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव (आदिनाथ) स्वामी है। उसके अधिष्ठायक रक्षक शासनदेव गरुड़ हैं। शासनदेवी का नाम चक्रेश्वरी ( मतान्तर से प्रतिचक्रा) है । चक्रेश्वरी देवी सुवर्ण समान निरुपम कांतिवाली है ।
ये सुवर्णवर्णवाली चक्रेश्वरी देवी गरुड़ वाहन पर आरूढ़ होती है । ये आठ हाथवाली है, जिसके दाहिने हाथों में वरद, बाण, चक्र तथा पाश है। और बाँये हाथों में धनुष, व्रज, चक्र तथा अंकुश को धारण किया है । ( प्रवचनसारोद्धार - २७, पृष्ठ१०५)
चक्रेश्वरी देवीने चक्र द्वारा पृथ्वी ऊपर के (अथवा स्वर्ग के ) पराक्रमी तथा मदोन्मत्त ऐसे शत्रुओं का संहार किया है, इसलिये अपना नाम अप्रतिचक्रा चरितार्थ किया है। ऐसी चक्रेश्वरी देवी की श्री जिनदत्तसूरिजी स्तवना करके, सभी की रक्षा करने की प्रार्थना करते हैं ।
उपमा, श्लेष आदि अलंकारों से विभूषित इस लघु कृति एक भावपूर्ण स्तोत्रकाव्य बन पड़ा है ।
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३. सर्वजिन स्तुति
आचार्य जिनदत्तसूरि रचित यह लघुकृति चार पद्यों में है । संस्कृत भाषा में है और इस में वसंततिलका छन्द का प्रयोग किया गया है।
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