________________
युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान विषयवस्तु:
सर्व जिन स्तुति में आचार्यश्रीने चतुर्विंशति जिनकी स्तवना की है। यह स्तुति का मूल मात्र प्रकाशित है। इस ग्रंथ में परिशिष्ट में पुनः प्रकाशित की जाती है-क्रमांक६ । अनुवाद निम्न दिया जाता है। अनुवाद :
श्लोक १. बहुत से देवों से सेवनीय शक्र भी जिनेश्वरों की स्तुति करने में अक्षम पाया जाता है। ऐसी स्तुति को अन्य कौन कर सकता है ?
श्लोक २. श्री ऋषभ, अजित, संभव, अभिनंदन, सुमतिजिन, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, सुविधि, शीतलनाथ,
श्लोक ३. श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनंत, धर्म, शान्ति, कुंथु, अर, मल्ली, श्रीसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्व और वर्धमानस्वामी को वंदन करता हूँ।
श्लोक ४. सभी को वंदन करके, गुरु वर्धमानसूरि, जिनेश्वरसूरि, अभयदेवसूरि, जिनवल्लभसूरि से मैं ज्ञानादिक मागताँ हूँ। वे सभी जिनदत्त (अर्थात् स्तुतिकार)का हित करें।
विशेष-सुप्रसिद्ध प्राकृत लोगस्स सूत्र की भांति यहाँ संक्षिप्त में-सूत्रात्मक रूप से चोवीसों तीर्थंकरों के साथ अपने गुरु स्वरूप आचार्यों को वंदन किया गया है।
***
४. वीरस्तुति वीर-स्तुति संस्कृत भाषा में ४ पद्यों में है, इसमें तीर्थंकर की स्तुति की गयी
इस स्तुति के प्रथम पद्य में अनुष्टुप, द्वितीय पद्य में आर्या, तृतीय पद्य में उपजाति और चतुर्थ पद्य में वसंततिलका छंद का प्रयोग किया गया है। यह स्तुति खरतरगच्छीय प्रतिक्रमण पुस्तकों में प्रकाशित है, परिशिष्ट में क्रमांक-७ पर पुनः प्रकाशित की जाती है।
युगप्रधान जिनदत्तसूरि-अगरचंदजी नाहटा, पृ.१०८ खरतरगच्छीय पञ्चप्रतिक्रमण सूत्र-पुस्तक में देखें।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org