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प्रकरण-४: आचार्य जिनदत्तसूरिजी की साहित्य-साधना
“होनहार विरवान के होत चीकने पात।" । यह निः सन्देह कहा जा सकता है कि आचार्य श्री जिनदत्तसूरिजी जीवन के प्रारम्भिक काल से ही अद्वितिय प्रतिभा सम्पन्न थे। किसी भी प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति की प्रतिभा लम्बे अरसे तक छिपी नहीं रह सकती है। वह अचानक किसी दिन झरने की भाँति अविरत प्रवाह के साथ बाहर निकल पड़ती है।
प्राणीमात्र के साथ ममत्व की भावना, लोक-कल्याण की दृष्टि और धर्मप्रचारप्रसार की भावना से बलवती होकर आपकी वाणी आन्तर-चेतना से प्रेरित होकर समाज में गंगा के प्रवाह की तरह सर्वतः प्रसरित होने लगी तब आपके मुखकमल से निःसरित सोढम (सुगन्ध)स्वरूप शब्द, काव्य और व्याख्यानों ने ही आपके साहित्यका रूप धारण किया।
साहित्य समाज का दर्पण होता है और समाज को प्रभावित करता भी है।
आचार्यश्री जिनदत्तसूरिजी की साहित्यसाधना और प्रभावपूर्ण पाण्डित्य सर्वकालिक होकर साहित्याकाश में देदीप्यमान हो रहा है।
आपका जीवन बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न था। इसलिए आपके व्यक्तित्व पर ध्यान देने से मालूम होता है कि आप समर्थ धर्मनेता के साथ-साथ संयमशील साधक एवं लोक-हितेच्छु भी थे।
आपकी साहित्य साधना एकांगीमात्र नहीं है, इस बात का ज्ञान आपकी कृतियों में विद्यमान तात्कालिक जैन समाजकी विभिन्न प्रवृतियाँ, तात्कालिक भारतीय साहित्य और भाषा का विकास आदि से होता है।
आपके साहित्य सर्जन की सबसे बड़ी विलक्षण बात यह है कि वह विद्वत् भोग्य होने के साथ-साथ लोकभोग्य भी है।
आचार्यश्री जिनदत्तसूरिजी की साहित्य साधना संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं में मिलती है, जो मात्र धार्मिक दृष्टि से ही नहीं अपितु भाषा विज्ञान की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है।
आपके काव्य साहित्य में दर्शन, ज्ञान, भक्ति, ईश्वर स्तुति, गुरु गुण महिमा, आचार-विचार आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है।
आपश्री के साहित्य का मुख्य लक्ष्य “जैन धर्म का प्रचार तथा चैत्यवास का विरोध' था, इसी कारण उनकी प्रत्येक कृति उसी लक्ष्य की पूर्ति की ओर अग्रसर थी।
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