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________________ स्व-कथ्य भारत एक धर्मप्रधान देश है। विश्व के प्राचीन धर्म हिन्दू धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म भारत में पनपे हैं। इतना ही नहीं भारत में विविध धर्मों के होने पर भी वह एक है। यह वही देश है जहाँ संसार के सभी धर्मों को सम्मान सत्कार मिलता है। जैन धर्म का प्रचार-प्रसार अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी से प्रारम्भ होकर आज तक अक्षुण्ण रूप से हो रहा है । समयांतर से उसमें कुछ उपविभाग हुए। उन उपविभागों में से खरतरगच्छ संप्रदाय का भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान हैं। इसी खरतगच्छ में बारहवीं शताब्दी में युगप्रधान आचार्यश्री जिनदत्तसूरिजी हुए। आपश्री “दादासाहब" के उपनाम से भी जाने जाते हैं । दादासाहब ने लोककल्याणार्थ एवं जैन धर्म प्रचारप्रसारार्थ जो साहित्यिक एवं सामाजिक कार्य किया है वह अविस्मरणीय है । श्री जिनदत्तसूरिजी जैनधर्म के सभी सम्प्रदायों में भीष्म पितामह की तरह महान् प्रभावशाली मैं जैन धर्म में खरतरगच्छ की साध्वी हूँ और दादा जिनदत्तसूरिजी के साहित्य का अध्ययन करने के बाद जब प्राकृत विषय में पीएच.डी. करने का निश्चय किया तो दादासाहब की प्रसिद्ध प्राकृत-अपभ्रंश कृतियाँ सामने आई। वैसे दादासाहब के जीवन पर अनेक विद्वानों ने अपनी लेखनी चलायी है, किन्तु उनकी कृतियों के बारे में किसी ने तुलनात्मक अध्ययन नहीं किया है। अतः मैंने दादासाहब के जीवन एवं उनकी सभी कृतियों का तुलनात्मक अध्ययन-विषय पर पीएच.डी. करने का निश्चय किया। उनके साहित्य का अध्ययन करने के लिए यह आवश्यक हो गया कि उनके समय के भारतीय समाज एवं खास करके जैनसमाज का अध्ययन भी किया जाय। जैनसमाज में उस समय प्रवर्तमान चैत्यवास आदि धर्मविरुद्ध प्रवृत्तियों का जोर था। दादासाहब ने धर्म का सच्चा स्वरूप सामान्यजनों को समझाने के लिए संस्कृत, प्राकृत एवं अपने समय की सरल अपभ्रंश भाषा में विपुल उपदेशात्मक कृतियों की रचना की। यह दिखाने के लिए उनके जीवन-चरित्र का भी आलेखन यहां मैंने किया । यहाँ दादासाहब के जीवन चरित्र का सूक्ष्म रूप में दिग्दर्शन किया गया है। मुख्य क्षेत्र तो उनके साहित्यिक योगदान का निरूपण ही है। युगप्रधान आचार्यश्री जिनदत्तसूरिजी द्वारा रचित प्राकृत, अपभ्रंश एवं संस्कृत भाषाओं की अन्तस्तल में पड़ी हुई सामग्री का प्रस्फुटन करना एवं दादाजी के लोकोपकार VII Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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