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________________ एवं जनकल्याण की भावना को समाज एवं सम्प्रदाय के सन्मुख रखना ही मेरा कार्यक्षेत्र विषय-वस्तु प्रस्तुत महानिबन्ध को कुल पांच प्रकरणों में विभाजित किया गया है। प्रथम प्रकरण में बारहवीं शताब्दी में प्रचार एवं प्रसार युक्त जैन सम्प्रदाय की संक्षिप्त पूर्व भूमिका है। उस समय की राजनैतिक स्थितियों को भी ध्यान में रखा गया है क्योंकि धर्म का प्रचार एवं प्रसार अर्थाभाव एवं राजाओं की सहायता के अभाव से सम्भव नहीं हो पाता। धर्म समाज के लोगों के द्वारा ही विकास को प्राप्त होता है । और वह तभी सम्भव है जब देश की सामाजिक स्थिति सुदृढ़ हो । सामाजिक एवं राजनैतिक स्थिति का प्रभाव कला एवं साहित्य पर पड़ता है। जब ये समस्त बातें एकत्र होती है तो ही किसी देश की अथवा किसी धर्म की स्थिति पूर्ण विकास को प्राप्त होती है। इस लिए इन सभी बातों का निरूपण प्रथम-प्रकरण में किया गया है। द्वितीय प्रकरण में तत्कालीन जैन धर्म के सम्प्रदायों में चैत्यवास प्रथा के कारण बहुत सी बुराइयों का आगमन हो चुका था-जिसे युगप्रधानों एवं आचार्यों के द्वारा भी प्रश्रय मिलता था। उसके निवारण के लिए दादाजी के अथग प्रयत्नों का वर्णन भी इसमें किया गया है। इसी द्वितीय प्रकरण में वर्धमानसूरिजी से लेकर जिनवल्लभसूरिजी तक की गुरु-परम्परा का भी निरूपण अच्छी तरह किया गया है। तृतीय प्रकरण में युगप्रधान आचार्य श्री जिनदत्तसूरिजी के जीवन चरित्र की सुंदर झांकी का चित्रण किया गया है। जिसमें जन्म, दीक्षा, उनके तीव्र मस्तिष्क एवं बुद्धिमत्ता, आचार्य पद प्राप्ति, विहार क्षेत्र एवं उस काल के चमत्कारों, सामाजिक कार्य, शिष्य परम्परा, निर्वाण प्राप्ति और वर्तमान समय तक की प्रतिष्ठा का वर्णन किया गया चतुर्थ प्रकरण में आचार्यश्री द्वारा रचित साहित्य का विस्तृत परिचय दिया गया है। (अ) में संस्कृत कृतियों को संकलित किया गया है । इन संस्कृत कृतियों के द्वारा विभिन्न देवी-देवताओं की स्तुति की गई है। जिनके नाम अजित-शांति स्तुति, चक्रेश्वरी स्तुति, योगिनी स्तोत्र, सर्व जिन-स्तुति तथा वीर स्तुति है । इन स्तुतियों के द्वारा धर्म के समुन्नयन एवं श्रावकों के कल्याण की बात की गई है। आचार्यश्री की कुछ प्रकीर्णक रचनाएं भी है। जिनके नाम क्रमशः विंशिका, पदव्यवस्था, शान्तिपर्व VIII For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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