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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
चौसठ योगनियाँ :
एक समय उज्जैन में धर्म की प्रभावना के लिये साढ़े तीन करोड़ माया-बीज (हींकार)का जाप प्रारम्भ किया। तब आपको विचलित करने के लिये ६४ योगनियाँ आपश्रीजी के व्याख्यान में आई। आपने अपने ज्ञान-बल से यह बात जान ली और श्रावकों के द्वारा ६४ पट्टो की व्यवस्था प्रवचन में करवा दी थी।
प्रवचन में योगनियाँ श्राविकाओं का रूप धारण करके आइ । व्याख्यान के पश्चात् जब वे उठने लगी तो हिल न सकीं। अन्त में लज्जित होकर क्षमा याचना करते हुए कहने लगीं- “हम तो आपको छलने के लिए आयीं थी, किंतु आपके तपो-बल से हम स्वयं छल गई।'' ऐसा कहके क्षमायाचना कर, भविष्य में धर्म प्रचार में सहायता का वचन देते हुए, सात- वरदान देकर स्वस्थान चली गयी। वे सात वरदान इस प्रकार
(१)
(
५६.
(क)
आपके साधु प्रायः मूर्ख न होंगे। साधु-साध्वी किसी की भी सर्प से मृत्यु नहीं होगी। खतरगच्छवालों की वचन सिद्धि होगी। अखण्ड ब्रह्मचारिणी साध्वी ऋतुमती न होगी। आपके नाम स्मरण से बिजली न पड़ेगी। आपका श्रावक प्रायः धनवान् होगा। शाकिनी न छलेगी। खरतर पट्टावली- १- पृष्ठ- १० खरतर पट्टावली-३ जिनविजयजी पृष्ठ ४९-५० कई पट्टावलियों में सात वरदान में थोड़े बहुत परिवर्तन पाये जाते हैं । खरतर पट्टावलियों में इन सात वर देने और उनके फलिभूत होने में सात विधान भी बताये है :(१) पट्टधर पंचनदी साधना करें। (२) आचार्य प्रतिदिन १००० सूरिमंत्र का जाप करें। (३) खरतर श्रावक उभयकाल सप्त स्मरण पाठ करे । (४) प्रत्येक घर में क्षिप्रचटी (उवसग्गहर व नवकार) की माला फेरें । (५) हर महिने में हर घर में २ आंबिल करें। (६) पदस्थ साधु एकासन करे। (७) साधु २०० नवकार गिने।
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