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चित्तौड़ में वज्रस्तम्भ :
एकदा गुरुदेव की निगाहें चितौड़गढ़ में स्थित वज्रस्थम्भ पर पड़ी । वज्रस्वामी सारे ग्रंथ उसमें सुरक्षित रख दिये थे । उन ग्रंथों को प्राप्त करने के लिये अनेक आचार्यों ने प्रयास किये, किन्तु सफल नहीं हुए। लेकिन आचार्य जिनदत्तसूरिजीने अपने योगबल ग्रंथ प्राप्त किये। समस्त विद्याओं की सफल साधना करके जिनशासन के अष्ट प्रभावकों में से "सप्तम प्रभावी आचार्य" के रूप में प्रसिद्ध हुए ।
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बिजली स्थंभित:
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अजमेर प्रवास के दौरान गुरुदेव की निश्रा में चतुर्दशी का प्रतिक्रमण चल रहा था । प्रतिक्रमण की साधना के बीच ही अचानक बिजलियाँ चमकने लगी । भयंकर गर्जना से लोग भयभीत होने लगे । जहाँ प्रतिक्रमण चल रहा था, बिजली वहीं पर गिर पड़ी । गुरुदेव ने स्तंभिनी विद्या के प्रभाव से उस बिजली को लकड़ी के पात्र में स्थंभित कर दिया। अन्त में विद्युत ने वरदान दिया “जो भी गुरुदेव का स्मरण करेगा, उन पर मैं कभी नहीं गिरूंगी।” ५३ आज भी राजस्थान में बिजली चमकने पर श्री जिनदत्तसूरि की दुहाई दी जाती है । जिससे विद्युत-पात नहीं होता। इसी पर उपाध्याय धर्मवर्धन (जन्म सं. १७००) का अति प्रसिद्ध छन्द प्रचलित है । पाँच पीर और बावन वीरों को वश में करना
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युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
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आप भ्रमण करते हुए पंजाब में पधारे। तो एक बार साधना करने के उद्देश्य से पाँच नदियों के मध्य में गुरुदेव आसन लगाकर ध्यान मग्न हो गये । पाँचो नदियों का अधिष्ठायक पीर आपको विचलित करने आया। लेकिन आप अपनी साधना में अडिग रहे । अन्त में देव ने हाथ जोड़कर आपसे क्षमा मांगी। इसी प्रकार बावन वीरों को भी आपने वश में किया। पंजाब में जैनधर्म की दुन्दुभी गुंजाई ।
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दादा जिनदत्तसूरि चरित्र एवं पूजा विधि, श्री धर्मपाल जैन, खरतर पट्टावली - पैरे. ७, पृष्ठ- १०.
छन्दः
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बावन वीर किये अपणे वस, चौसठ जोगिणि पाय लगाई । व्यन्तर खेचर भूचर भूतरू, प्रेत पिशाच पलाई ||
बीज तटक्क भटक्क अटक्क रहे जु खटक्क न खाइ ।
कहै धर्मसिंह लंघे कुण लीह, दिये जिनदत्त की एक दुर्हाइ । इति
( उपा. क्षमाकल्याणजी से १०० वर्ष पूर्व दीक्षित उपा. धर्मवर्धनजी द्वारा रचित सं. १७६८)
खरतर पट्टावली १ पृष्ठ- १०
पृ. १७
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