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युगप्रधान आ. जिनदतसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
उन्होनें अत्यंत स्पष्ट और कटु शब्दों मे कहा- 'चैत्यवास का कलुषित वातावरण मुनि जीवन के लिए सर्वथा असंगत है।'
जिनेश्वरसूरि की वाक्-पटुता, तर्कशैली और प्रकाण्ड-पाण्डित्य से प्रतिपक्ष हतप्रभ-सा हो गया। तथा सभा मे बैठे पंडित और विद्वान् सभी प्रभावित हुए।
जिनेश्वरसूरि ने अपनी औजस्वी वाणी के द्वारा चैत्यवास पक्ष का खंडन किया तथा वसतिमार्ग का प्रतिपादन किया।
पट्टावलियों के अनुसार
वि.सं. १०८० में चैत्यवासियों के साथ जिनेश्वर सूरिने दुर्लभराजा की राजसभा में वाद-विवाद लिया। फलत: चैत्यवासी पराजित हुए और जिनेश्वरसूरि ने शास्त्रार्थ करके विजयश्री प्राप्त की।३३
क्योंकि चैत्यवासी शास्त्रोक्त विधि का पालन करने में असमर्थ थे, उनका चरित्र जैनागमों से विरुद्ध और दूषित था और उनके पक्ष में सत्य न था यह बात समझते हुए महाराजा दुर्लभराजा ने कहा- कि “जिनेश्वर सूरि का पक्ष खरा' अर्थात् सत्य प्रमाणित है। तभी से उनका समुदाय खरतरगच्छ नाम से प्रसिद्ध हुआ। ३४
इस प्रकार गुजरात में “वसतिमार्ग' का सर्वप्रथम आविर्भाव हुआ। ३५
खर. वृद्धा वार्य प्रबन्धावलि-जिनविजयजी-पृ. ९०. “दस सय चउवीसे ? वच्छरे ते आयरिया मच्छरिणो हारिया' (जिनेश्वरसूरि प्रबन्ध, पृष्ठ-९०)
३४.
(क)
(ख)
अपभ्रंश काव्यत्रयी, भूमिका पृष्ठ-११६. वृद्धाचार्य प्रबन्धावलि-जिनविजयजी-९०. "रना तुटेण "खरतर" इह विरुदं दिन्नं । तओ पर खरतरगच्छो जाओ।" (उद्धघृत वृद्धाचार्य प्रबन्धावलि-जिनेश्वरसूरि प्रबन्ध) गणधरसार्द्धशतक, पद्य ६५, ६६. सुगुरु-पारतन्त्र्य स्तोत्र पद्य-१०.
(घ)
कथाकोष प्रकरण-जिनविजयजी-पृ.३० खर, युगप्रधानाचार्य गुर्वावलि-पृ.४
(ख)
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